Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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विचार यात्रा / xxxill
साधना की प्रेरणा होती है। किन्तु ऐतिहासिक रूप प्राप्त करने के लिए संस्कृति को एक जीवन्त समाज में प्राणवत् प्रतिष्ठित होना चाहिए। संस्कृति सम्पन्न समाज, जो कि भौतिक साधनों से भी सम्पन्न है, सभ्यता कही जा सकती है। भौगोलिक, जातीय आर्थिक और राजनीतिक रचनाओं से समाज सभ्यता का आधार बनता है। आदर्शों को ऐतिहासिक यथार्थ बनने के लिए यथोचित सभ्यता में अवतरित होना आवश्यक है। किन्तु यह एक भ्रान्ति है कि समाज की आर्थिक रचना ही उसके आदर्शों की जन्मदात्री है।
1984 से 88 तक मैंने डॉ. लोकेश चन्द्र के निमंत्रण पर भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् के सर्वप्रथम राष्ट्रीय फेलो के रूप में कार्य किया । यही कार्य पीछे सारनाथ संस्थान से प्रो. एस. रिन्पोचे द्वारा Studcis in Mahayana के नाम से प्रकाशित हुआ । मैंने यह प्रतिपादित किया कि महायान मूल बुद्धदेशना की ही एक व्याख्या है, जो परवर्ती युग में अधिक प्रचारित हुई। प्रतीत्यसमुत्पाद के रूप में शून्यता बुद्धदेशना में ही प्रतिष्ठित है। उसे अभाववाद नहीं मानना चाहिए। विज्ञानवाद के अनुसार बाह्यार्थ निषेध को भी वैयक्तिक मनौवैज्ञानिक रूप में न समझकर उस पारमार्थिक रूप में समझना चाहिए जिसमें एक अतिवैयक्तिक अद्वैतविज्ञान ही ग्राह्य ग्राहक भेद से विवर्तित होता है।
1988 के बाद के दशक में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी और संस्कृत परिषद्, लखनऊ के निमंत्रण से तीन व्याख्यानमालाओं के रूप में मैंने अपने मौलिक दार्शनिक विचार प्रस्तुत किये। मित्रवर पंडित विद्यानिवास मिश्र के निमंत्रण पर पं. बदरीनाथ शुक्ल स्मृति व्याख्यानों के रूप में भक्तिदर्शनविमर्श: रचा गया । यह रचना पीछे उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के विश्वभारती सम्मान की निमित्त बनी। प्रो. सुब्रह्मण्यम अय्यर स्मृति व्याख्यानों के रूप में रचे गये सौन्दर्यदर्शनविमर्शः ग्रन्थ पर रामकृष्ण डालमिया न्यास का श्रीवाणी अलंकरण सम्मान प्रदान किया गया। प्रो. मण्डन मिश्र के निमंत्रण पर ग्रिफिथ मेमोरियल लेक्चर्स के रूप में एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति का प्रकाशन प्रो. वी. वेंकटाचलम् के कुलपतित्व में सम्पन्न हुआ। पहले ग्रन्थ में दर्शन का स्वरूप और उसका आगम से सम्बन्ध, ईश्वर का सत् के रूप में प्रामाण्य एवं भक्ति की रसरूपता का प्रतिपादन किया गया है। दूसरे ग्रन्थ में भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की कल्पना, रूप की विभिन्न युगों में अवधारणाएँ, रस की संविदविश्रान्ति रूपता और भावों की समाज सापेक्षता का प्रतिपादन किया गया है। तीसरे ग्रन्थ में तुलनात्मक धर्म-दर्शन को भारतीय आध्यात्मिकता के आधार पर निरूपित किया गया है। इन पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद कविवर प्रो. जगन्नाथ पाठक द्वारा सम्पन्न किया गया है।
1993 में मैंने हिन्दुस्तानी एकेडेमी में साहित्य, सौन्दर्य और संस्कृति विषयक तीन व्याख्यान किये जो इसी शीर्षक से पुस्तक रूप में 1994 में प्रकाशित हुआ । इस पुस्तक के माध्यम से मेरा अभिप्राय साहित्य, सौन्दर्यशास्त्र एवं संस्कृति की सापेक्षता का प्रतिपादन करना है। इस ग्रन्थ पर मंगला प्रसाद पारितोषिक एवं ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी सम्मान प्रदान किया गया।
1991 में गोविन्द बल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहाबाद द्वारा आयोजित पं. गोविन्द बल्लभ पन्त स्मृति व्याख्यानमाला के अन्तर्गत मैंने तीन व्याख्यान दिए जो 1994 में भारतीय समाज : तात्त्विक और ऐतिहासिक विवेचन के नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। इसके माध्यम से मैंने आधुनिक सामाजिक चिन्तन और पारम्परिक सामाजिक चिन्तन को एक निष्पक्ष बौद्धिक मानदण्ड से जाँचने की चेष्टा की और इस बात का प्रयास किया कि समाज विषयक सनातनविद्या का अनुचिन्तित सार संक्षेप में प्रस्तुत हो सके।
1988-99 में शङ्कराचार्य की जयन्ती महोत्सव राष्ट्रीय स्तर पर मनायी गयी। इस अवसर पर शङ्कराचार्य के विषय में ऐतिहासिक, दार्शनिक और साहित्यिक जिज्ञासा से प्रेरित तीन व्याख्यान मैंने हीरानन्द शास्त्री व्याख्यानमाला के अन्तर्गत दिए जो पुस्तक रूप में 1992 में शङ्कराचार्य: विचार और सन्दर्भ नाम से प्रकाशित हुआ । इन व्याख्यानों में शंकर के इतिहास का उनकी आख्यायिका से अलग करने का और उनकी तात्त्विक विचारणा पद्धति, संगति, सन्दर्भ और सार्थकता के विश्लेषण का प्रयत्न पारम्परिक और नवीनतम ऐतिहासिक शोध दोनों की ही पृष्ठभूमि में प्रस्तुत है 1994 में Life and Thought of Sankaracarya नामक अंग्रेजी में प्रकाशित पुस्तक इस विचार श्रृंगार की अगली कड़ी है। जिसमें शराचार्य