Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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78 / Jijñāsā
उद्धवगीता का दार्शनिक एवं नैतिक चिन्तन
यह गीता भागवतपुराण के एकादश स्कन्ध के अध्याय 7 से 29 तक है। इसमें कुल 1030 श्लोक है। उद्धवजी को जब ज्ञात होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण इस धरातल से शीघ्र प्रयाण करने वाले हैं तो ब्रह्मज्ञान विषयक जिज्ञासा रखते हैं। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने उद्भव की समग्र जिज्ञासाओं का समाधान इस दिव्य गीता के माध्यम से किया। यह गीता परमपवित्र भागवत पुराण के दार्शनिक तत्त्वों का सारभूत अंश है। इसमें सांसारिक वासनाओं को त्याग कर भगवद् भक्ति का उपदेश होते हैं, तब उद्भव कहते है विषयी पुरुष के द्वारा इन्द्रिय निग्रह असम्भव है। संसार त्यागना कोई सहज सम्भव कार्य नहीं है तो भगवान् श्रीकृष्ण अवधूत दत्तात्रेय एवं राजा यदु का संवाद सुनते हैं। दत्तात्रेय ने वैराग्य के उत्पादक 24 गुरूओं से निर्देश लिये हैं- पृथिवी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य. कबूतर, अजगर, समुद्र, पतन, भौरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालने वाला, हिरण, मछली, पिङ्गला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुमारी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी और मुद्री कीट इन गुरुओं से उनके सद्गुणों की शिक्षा ग्रहण करके ही दतात्रेय में दिव्यज्ञान का उदय हुआ है (उद्धवगीता अध्याय - 14 पृ. 1-23)। शिक्षार्थियों के लिए इन्हीं गुरुओं का आचरण बड़ा शिक्षाप्रद है। इनसे सीखे गये गुण मानव के आध्यात्मिक जीवन के परम उत्थान हेतु परमावश्यक है। भगवान् इस गीता में लौकिक एवं पारलौकिक भोगों की असारता का युक्तिसंगत प्रदर्शन करते हैं। इसमें वासनाबद्ध एवं मुक्त भक्तजनों के स्वरूप का स्पष्टीकरण का वर्णन है उद्धवगीता पृ. 4. 47 | सत्सङ्ग की महिमा तथा निष्काम कर्म की विधि सुस्पष्ट की गई है। हंस रूप में सनकादि को दिये गये उपदेशों का वर्णन है। इस गीता में भक्तियोग की महिमा का विस्तृत शास्त्रीय विवेचन है। साधना के बीच मिलने वाली सिद्धियाँ भक्ति भाव मे बाधक बनती है। अतः भक्तों को उनसे दूर ही रहना चाहिये। भगवान् की विभूतियों का विस्तार में प्रतिपादन है। मानव के विशेष धर्म-वर्णाश्रम का भी विवेचन है। प्रसङ्गतः वानप्रस्थ एवं संन्यासी के कर्म भी यहाँ निरूपित किये गये हैं। मानव के सामान्य धर्म यम, नियम आदि का भी शास्त्रीय विवेचन है जो भक्तिमार्ग में पूर्णतः आवश्यक होता है। मोक्ष के साधन स्वरूप ज्ञानयोग, कर्मयोग तथज्ञ भक्तियोग का का प्रौढ़ शास्त्रीय तुलानात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए सिद्ध किया है कि वैराग्यप्रधान साधक ज्ञानमार्ग के, वैराग्य रहित सकाम साधक कर्मयोग के तथा जो न विरक्त है न आसक्त, केवल श्रद्धालु है, वे सब भक्ति के द्वारा ही मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। अधिकारियों के भेद से मोक्षमार्ग भी त्रिविध है। विषयभोगानुरागी जन्मजन्मान्तर तक संसार में ही भटकते रहेंगे। इसके बाद सांख्य दर्शन की तत्त्वमीमांसा का विवरण दिया गया है। पुरुष एवं परम पुरुष के स्वरूप का भी निर्णय है। इस गीता में एक तितिक्षु ब्राह्मण का उपाख्यान भी प्रस्तुत हुआ है उद्धवगीता पृ. 1061 अर्थ के कारण पन्द्रह अनर्थ पैदा होते हैं- चोरी, हिंसा, झूठवचन, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहंकार भेदबुद्धि, वैर अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जुआ और शराब अर्थपिपासु धनी ब्राह्मण के सम्पूर्ण धन के नए होने पर उसमें अर्थशून्यता के कारण उत्कट वैराग्य उत्पन्न है। चूँकि अर्थ के अनर्थकारक रूप को साक्षात्कर के वह वैरागी बनकर प्रभुभक्ति में सर्वात्मना लीन हो जाता है। मौनी बनकर सांसारिक सर्वविध आसक्ति के बिना बहुविध विघ्न बाधाओं से ग्रसित होकर भी मन को पूर्णत: सारतत्त्व भक्ति में लगाता रहा तथा ज्ञान एवं वैराग्य के माध्यम से परमगति का प्राप्त कर लेता है। यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य है कि उसके धन के नष्ट होने पर ही उसके सारे क्लेश भी दूर हो गये तथा ब्रह्मज्ञान में वह पूर्णनिष्ठ हो गया। अतः परम ज्ञान की प्राप्ति में धन का कोई महत्त्व सिद्ध नहीं होता है।
इस गीता में सांख्ययोग के अनुसार दार्शनिक विचार, तीन गुणों की वृत्तियों का निरूपण भी किया गया है। उदाहरणार्य इन्द्रिय कामासक्त पुरूरवा का उर्वशी के लिये विलाप तथा उससे वियोग से वैराग्योत्पत्ति की विशेषता वर्णित है उद्धवगीता पृ. 127-129। अन्त में परमज्ञान होने पर वह उर्वशी के वियोगजन्य दुःख से मुक्त हुआ । उपासनायोग तथा उसकी विधि का सविस्तार वर्णन भक्त के करणीय कार्यों का प्रतिपादन हुआ है। अन्त में परमार्थ एवं भागवत धर्मों का विस्तृत वर्णन है। श्रीकृष्ण से सम्पूर्ण उपदेश प्राप्त कर उद्भव बदरिकाश्रम में जाकर जप, तप आदि का आचरण करने हेतु प्रस्थान करते हैं। इस गीता का सारांश यह है कि विवेकियों के विवेक और चतुराई की पराकाष्ठा इसी में है कि वे अविनाशी और असत्य शरीर के द्वारा अविनाशी, सत्यस्वरूप, भगवान् को प्राप्त कर लेवें ।