Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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उत्तरउपनिवेशवाद और प्राच्यवाद: संकल्पना और स्वरूप
तरीका था। आज का उपनिवेशवाद अपनी विकसित प्रौद्योगिकी एवं टेक्नालाजी की मदद से तीसरी दुनिया के पिछड़े गरीब देशों की जनता और उनके राजनीतिक रहनुमाओं के दिलोदिमाग को बंधक बनाता है। कुछ इस तरह कि राष्ट्रों की राष्ट्रीय सत्ता, उनकी अपनी जेहनियत, अपनी जातीय अस्मिता की पहचान मुश्किल हो जाये क्योंकि औपनिवेशिक चिंतन को धार सिर्फ राजनीति, अर्थशास्त्र एवं राजनीतिक कारवाई से ही नहीं मिलती बल्कि लोगों के मनोमस्तिष्क में अपनी भाषा एवं संस्कृति के प्रति अनास्था कुंठा, आत्महीनता, राष्ट्रीय गौरव के लोप, सांस्कृतिक उदासीनता, मानसिक जड़ता एवं गुलामी से भी मिलती है। इस दृष्टि से अगर प्राच्यवाद के इतिहास और उसकी सामाजिक भूमिका पर विचार करें तो कुछ बेहद खतरनाक मुर्दे अपनी कब्र से बाहर निकलकर खड़े हो जायेंगे और तब यह तथ्य अनदेखा नहीं रह जायेगा कि स्वातंत्र्य भावना का समर्थक पश्चिम का उदार उत्तरआधुनिक समाज उसी अनुपात मे युद्ध एवं अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से ग्रस्त रहा है जिसके एक हाथ में न्यू टेस्टामेंट का गुटका है और दूसरे हाथ में नाभकीय हथियारों की बेलगाम ताकत। इसका शास्त्रीय उदाहरण है, मानव स्वाधीनता के परम प्रेमी जॉन स्टूअर्ट मिल के विचार इंग्लैण्ड उदारवाद का गढ़ माना जाता है। किन्तु इंग्लैण्ड के लिए मिल के जनतांत्रिक स्वतंत्रता के समर्थक विचार भारत पर लागू नहीं किये जा सकते थे, वह भी एक ऐसे समय में जब अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार के सार्वभौम पैमाने का निर्धारण उन्हीं शक्तियों ने किया था (और आज भी कर रहे हैं) जो उपनिवेशों की सत्ता पर काबिज थे और उनके भाग्यविधाता बने
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हुए थे। दूसरा उदाहरण लें। 19वीं सदी में फ्रांस में एलेक्सी द् टोक्याविल हुए थे। वह योरोप में शास्त्रीय पूँजीवाद की स्वस्थ परंपराओं और उदारवादी जनतांत्रिक मूल्यों के प्रबल समर्थक थे और उन्हें आचरण में उतारने के पक्षधर थे। वह अमेरिका में रेड इंडियन्स एवं अश्वेतों पर होने वाले अत्याचार एवं नस्ली भेदभाव के मुखर विरोधी थे किन्तु अल्जीरिया में फ्रांसीसी उपनिवेशवाद की भूमिका पर चुप रहते थे। 19वीं सदी के चौथे दशक में जब मार्शल बुगाओ के नेतृत्व में फ्रांस ने अल्जीरियाई मुसलमानों के खिलाफ उसी तरह व्यापक नर संहार- 'मास जेनेसाइड' - चलाया जैसा कि हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ जर्मनी में चलाया था, तो तोक्यिावली ने जिन सिद्धांतों के आधार पर देश में जनतांत्रिक नीतियों का समर्थन और अमेरिकी नीतियों की कड़ी आलोचना की थी वे सब अचानक हवा हो गए। मार्क्स ने भारत-संबंधी अपने एक लेख में ठीक लिखा है, कि उपनिवेशवादियों की निविड धूर्तता और स्वभावगत बर्बरता पर से हमारी आँखों के समाने पर्दा तब उठ जाता है, जब अपने देश में जहाँ वह सभ्य रूप धारण किये रहती है, वह उपनिवेशों में जाकर बिल्कुल नंगी हो जाती है।
आस्ट्रेलियाई विचारक नार्थ रॉ फ्राई ने एक जगह लिखा है, कि अगर दो संस्कृतियों की भिडंत होती है तो उसमें पिछड़ी हुई संस्कृति ही गुलाम या विस्थापित होती है। इससे प्रमाणित होता है कि संस्कृतियाँ ही जीवित रहने की अधिकारी भी है। 1981 में डेनियल आर हेंड्रिक ने 'ट्रल्स ऑफ एम्पायर्स' नामक अपनी पुस्तक में एक ऐसे प्रयाणगीत मार्च पास्ट सांग' को उद्धृत किया है, जो पश्चिम ईसाईवाद के आक्रामक आत्मविश्वास और उसकी नस्ली एवं प्रजातिगत श्रेष्ठता की संक्रामक आस्था को दुहराता है
बिरादर / पोंछ कर रजो खौफ के अश्क
मिटा दे गम नाकामियत शुब्हः इस्तिबा का
पूरा करेगा ईसा तुम्हारे मनसूबों को
टिकती नहीं तेगें बारूद के खिलाफ।
फ्राई के विचारों एवं पूर्वोद्भुत प्रयाण गीत के भावबोध में अद्भुत समानता है। तलवारें बारूद के सामने टिक नहीं सकती हैं। मतलब यह कि गुलाम देशों की पिछड़ी हुई संस्कृतियाँ पश्चिम की आगे बढ़ी हुई संस्कृति से पराजित होने के लिए अभिशप्त हैं। उत्तर औपनिवेशिक दौर में बुद्धिजीवियों का एक तबका आज भी इसी तरह सोचता है। उनका बौद्धिक रंग-ढंग यह बताता है, कि पश्चिम के दुस्साहसिक विजयी अभियानों के परिणामस्वरूप एशियाई और अफ्रीकी समाजों की जनता को अपनी बर्बरतापूर्ण आदिम स्थिति से उबर कर इतिहास एवं सभ्यता में प्रवेश करने का मौका मिला है। यह आकस्मिक नहीं है कि सैमुअल हटिंग्टन की पुस्तक 'क्लेश ऑफ सिविलाइजेशन' (सभ्यताओं का संघर्ष) पूँजीवादी विचारों के बाजार में गर्म केक की तरह बिकी क्योंकि उससे