Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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उत्तरउपनिवेशवाद और प्राच्यवाद : संकल्पना और स्वरूप
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अतीत के खुशनुमा पलों में लौट जाना चाहती हैं। ग्राम्शी जिसे 'लोकप्रिय राष्ट्रीय' कहते हैं, वह, जिस चीज से किसी राष्ट्र की पहचान बनती है, उस पर निर्भर करता है। आम तौर पर होता यह है, कि कोई राष्ट्र परंपरागत चिंतन से जुड़ जाता है। परिणामस्वरूप उस राष्ट्र की पहचान प्रभुत्वशाली विचारधारा से बनने लगती है। जैसे वैदिक संस्कृति से भारत, ईसाईयत से योरोप, इस्लाम से मुस्लिम समाज, जुडाइज्म से यहूदी समाज। आज का नेटिविज्म'- अस्मिता की राजनीति - बहुसंख्यकों के धर्म को आधार बनाकर चलता है। वह धर्म को मानव-समूह की पहचान बताता है। प्रोफेसर अमर्त्य सेन ने लिखा है कि 'उपनिवेशवाद की प्रतिक्रिया में जो एक धारा उभरती दिखती है, वह चिंता पैदा करती है। इसमें भारतीय इतिहास के अध्ययन और खास अवसरों का अध्ययन वैज्ञानिक दिशा रखने की जगह अधिक आध्यात्मिक दिशा में मुड़ जाता है। 25 भारत के प्रति औपनिवेशिक प्राच्यवादी इतिहास दृष्टि से भी इस धारणा को बल मिलता है। ___ धार्मिक पहचान को केन्द्र बनाकर की जाने वाली राजनीति की विडंबना है कि वह राजनीति की परिधि पर बनने वाली दूसरी छोटी अस्मिताओं से हमेशा टकराव की मुद्रा में होती है। ऐसे में बहुसंख्यकों की धार्मिक पहचान को अल्प संख्यकों की धार्मिक पहचान के खिलाफ आराम से उभारा जा सकता है। परिणामस्वरूप छोटी अस्मिताएँ मनोवैज्ञानिक रूप से अपनी सुरक्षा के लिए धार्मिक तत्त्ववाद का सहारा लेती हैं जिसकी परिणति हिंसा में होती है। दूसरी अस्मिताओं को पूरी तरह नष्ट कर या उन्हें दबाकर उनके प्रति घृणा को असहनशीलता की सीमा तक उभार कर उसे स्थायी शत्रुता में बदला जा सकता है। आज का आतंकवाद या 9/11 की घटना उसी का नतीजा है। यह औपनिवेशिक दौर के राष्ट्रवाद का ही नहीं बल्कि एशियाई उपमहाद्वीप में उत्तरऔपनिवेशिक राष्ट्रवाद का भी सच है। इस संबंध में पार्थ चटर्जी का निम्न कथन ध्यान देने योग्य है, "मेरा मानना है कि उपनिवेशवाद विरोधी साम्राज्यवादी सत्ता से लड़ाई शुरू होने के काफी पहले ही राष्ट्रवाद ने औपनिवेशिक समाज के अंदर अपना एक बहुत स्पष्ट और स्वायत्त प्रभावक्षेत्र कायम कर लिया था। इसने सामाजिक संस्थाओं और लोकाचार को स्पष्टत: दो हिस्सोंभौतिक और आध्यात्मिक- में बाँट कर ऐसा किया था। भौतिक क्षेत्र बाहरी है, जो अर्थव्यवस्था, शासन-प्रबंध, विज्ञान तथा तकनीक से जुड़ा है और इस क्षेत्र में पश्चिम ने अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित कर दी है। तथा पूरब ने उसके आगे हार मान ली है। तब, इस क्षेत्र में पश्चिमी प्रभुत्व को स्वीकार करना ही था साथ ही साथ इसकी उपलब्धियों को सावधानीपूर्वक देखने और उसे अपने यहाँ हासिल करने का यत्न करने की जरूरत थी। दूसरी तरफ आध्यात्मिक क्षेत्र आंतरिक है और इससे सांस्कृतिक पहचान जुड़ी है। भौतिक क्षेत्र में जहाँ पश्चिम का अनुकरण करते हुए हम जितना ज्यादा सफल होते हैं हमें अपने आध्यात्मिक संस्कृति की विशिष्टता को बचाने की उतनी ही जरूरत होती है। मुझे लगता है कि यह एशिया और अफ्रीका के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन का एक विशिष्ट पक्ष है।"26
प्राच्यवाद की बौद्धिक दुर्बलताएँ उत्तरऔपनिवेशिक समाजों में खुलकर सामने आयी । अमर्त्य सेन ने लिखा है "निस्संदेह आध्यात्मिक पक्ष पर गौर करने से गुलाम देश के आत्मविश्वास के बने रहने वाला पहलू ज्यादा स्पष्ट ढंग से सामने आता है। लेकिन आज चलने वाले संघर्षो और टकरावों के संदर्भ में आत्मविश्वास को जाँचने का यह मार्ग हमसे काफी बड़ी कीमत वसूलता है और विज्ञान तथा तकनीक की प्रगति के रास्ते को बहुत मुश्किल बना देता है तथा पीछे की तरफ देखने वाली राजनीति को जरूरत से ज्यादा मदद दे देता है। यह न होता तो धार्मिक कट्टरपंथी राजनीति इतना नहीं फलती-फूलती। औपनिवेशिक दौर के संघर्ष का यह अवशेष आज विज्ञान और भौतिक ज्ञान की अधिकतम उपलब्धियाँ ले पाने के हमारे रास्ते में रोड़ा बन जाता है।"27
विश्व व्यापार केन्द्र पर हमले की घटना के बाद जार्ज बुश के बयान और तथाकथित सभ्यताओं के टकराव की 'फ्रेजोलॉजी' (फ़िकरेबाजी) पर गौर करें। 'क्रूसेड' का प्रयोग 1085 में पोप अरबन द्वितीय ने यरूशलम को मुसलमानों से मुक्त करने के लिए भड़काऊ भाषण और क्रास बाँटते हुए किया था और वह धर्मयुद्ध लगभग तीन सदी तक दक्षिण योरोप और पश्चिम एशिया को भूत की तरह परेशान करता रहा। 'क्रूसेड' शब्द योरोप के अवचेतन में दबे प्रतिशोध की भावना को उभारने वाला शब्द था, जबकि न तो पूरी इस्लामी दुनिया सारे योरोप को लादेन-खुमैनी की नजर से देखती है और न सारा योरोप बुश-ब्लेयर की नजर में भय, आतंक एवं दुश्मनी का पर्याय बन चुकी इस्लामी दुनिया को अपना खतरनाक शत्रु समझती है। प्रो. अमर्त्य सेन ने अपनी