Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan

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Page 210
________________ 172 / Jijnasa जातीय सभ्यता और संस्कृति तो नष्ट हुई ही उन्हें नूतनता से रू-ब-रू होने का मौका भी नहीं मिला। सबसे बड़ी बात यह हुई कि उनके आत्मविश्वास में कमी आयी है जिसके अभाव में स्वाधीनता के बाद भी इन देशों में राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का स्वप्रेरित संकल्प पूरी तरह व्यवहार में उतर नहीं पाया। गुलामी ने आत्मनिर्भरता की भावना को प्रायः समाप्त कर दिया। आज अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर उपजे विवाद को इसी प्रकाश में देखा जाना चाहिए। मार्क्स ने बिल्कुल ठीक कहा था, "उपनिवेशवाद एक रक्तरंजित प्रक्रिया है, एक ऐसा भीषण रक्तपात, दुःखदर्द और अपमान जहाँ बुर्जआ प्रगति एक ऐसी मूर्ति होती है जो कंकालों की खोपड़ी से अमृत पीती है।"23 सांस्कृतिक सिद्धांतों की निश्चित विचारधारात्मक भूमिका होती है। जेम्स मिल की पुस्तक 'ब्रिटिश रूल इन इंडिया' को ब्रिटिश अफसरों की बाइबिल कहा जाता था। उसे पढ़ना हर ब्रिटिश अफसर के लिए अनिवार्य था क्योंकि वह सिखाती थी कि ब्रिटिश रूलर रूखे होने के बावजूद ईमानदार थे, जबकि हिन्दुओं का बाहरी आवरण चमकदार होने के बावजूद वे व्यवहार में दुष्ट और धोखेबाज होते हैं। आयरलैण्ड ब्रिटेन का उपनिवेश था। 1840 में वहाँ अकाल पड़ा। एडमंड स्पेंसर ने 'फ्येरी क्वीन' पुस्तक में आयरलैंड की गरीबी और भुखमरी के लिए ब्रिटेन की भूमिका को नजरअंदाज करते हुए यह बताया कि वहाँ की तंगहाली के लिए स्वयं आइरिश लोग जिम्मेदार हैं। आइरिश स्त्रियों को चौके में आलू उबालने से ज्यादा कोई ज्ञान नहीं है। 1943 में बंगाल का अकाल पड़ा। लाखों लोग भूखों मरे। विंस्टन चर्चिल की टिप्पणी थी कि यह भारतीयों द्वारा खरगोश की तरह बच्चे पैदा करने का नतीजा था। संभवतः जर्मनों के बाद सबसे अधिक बर्बर एवं असभ्य हिन्दुस्तानी होते हैं। स्पष्ट हो गया कि साम्राज्यवाद किसी का सगा नहीं है। प्राच्यवाद की विचारधारा सिर्फ एशियाई एवं अफ्रीकी समाजों पर ही लागू नहीं होती है। वह पश्चिम के गुलाम देशों पर भी लागू होती है। इस मामले में पश्चिम की उपनिवेशवादी सत्ता और उसके समर्थक इतिहासकार एवं बुद्धिजीवी ईश्वर से भी ज्यादा पवित्र एवं ईमानदार हैं। उन्होंने 'अपने' और 'पराये के बीच ज्यादा फर्क नहीं किया है। राष्ट्रीय संस्कृति और जातीय अपमान की भावना से अस्मिता की राजनीति का जन्म होता है। उसी से यह खंडित सोच पैदा होती है कि संस्कृतियाँ निरपेक्ष तरीके से स्वतंत्र होती हैं। संस्कृतियों के आत्मनिर्भर एवं स्वत: संपूर्णता की आत्ममुग्ध दुनिया का कोई भी भाष्य अंधा आत्मतोष तो जागता है, किन्तु वह हमें अंतत: इतिहास के कब्रिस्तान में ले जाता है। सैमुअल हटिंग्टन ने सभ्यताओं के संघर्ष का जो नया सिद्धांत गढ़ा है, उसमें पुराने प्राच्यवादी मतवाद को नयी शब्दावली मिली है। उन्होंने लिखा है, "ईरानी इस्लामिक क्रांति एवं सुधारवाद की दृष्टि से भौतिकवादी पश्चिम दमनकारी, क्रूर एवं पतनशील है। ईसाईयत के विरूद्ध होने के कारण पश्चिम को उससे वास्तविक खतरा है। इस्लामिक दुनिया को पश्चिम आणविक शक्ति संवर्धन, आतंकवाद कबीलाई मनोवृत्ति का स्रोत मानता है। चूंकि पश्चिम उजड्ड इस्लामिक राष्ट्रों के खिलाफ युद्ध की खुली घोषणा करता है, इसलिए 'सभ्यताओं का संघर्ष' दिनोंदिन गंभीर होता जा रहा है। ......इस्लाम की दुनिया आदिम बर्बरता का निर्यात करती है और योरोप विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की सभ्य दुनिया का। हमारे समय का सर्वाधिक व्यापक एवं महत्वपूर्ण टकराव विभिन्न संस्कृतियों के बीच होगा। पश्चिम को समय रहते सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि संस्कृतियों की सार्वकालिकता की भी एक सीमा होती है।"24 नयी विश्व व्यवस्था का निर्माण दूसरी राष्ट्रीय अस्मिताओं को मिटाकर ईसाईयत की स्थापना से होगा, यह हटिंग्टन के सभ्यताओं के टकराव का मूल तर्क है। 9/11 की घटना लें। वह आज के भूमंडलीय पूँजीवाद के भारी-भरकम सैन्यीकृत प्रौद्योगिकी की ताकत, उसके विशाल सूचना-तंत्र और उपभोक्ता संस्कृति से दूसरी सांस्कृतिक अस्मिताओं के नष्ट हो जाने के खतरे और असुरक्षा से उपजे भय का नतीजा थी। वह मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर एवं प्रताड़ित एक रोस तब के की प्रतिक्रिया थी, जो अपनी धार्मिक पहचान और मध्ययुगीन चिंता के आधार पर साम्राज्यवादी ताकतों से संघर्षरत है। यों तो उपनिवेशों का स्वाधीनता-आंदोलन राष्ट्रीय पहचान'नेशनल आइडेंटिटी' की लड़ाई ही थी। उत्तरऔपनिवेशिक दौर में नवस्वाधीन देशों की राजनीति के नीचे पनपने वाले राष्ट्रवाद के विषय में एडवर्ड सईद ने लिखा है, कि वे प्रायः ऐसा रूप ले लेते हैं जिसे 'देशज' या 'नेटिविज्म' कहते हैं। जड़ों की ओर वापसी उसका पसंदीदा विश्राम स्थल है, जहाँ गुलाम जातियाँ अपनी पहचान पर जबरन थोपी हुई कालिख को मिटाने के लिए

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