Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan

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Page 200
________________ 162 / Jijñāsā 22. उत्तरउपनिवेशवाद और प्राच्यवादः संकल्पना और स्वरूप (टी. एस. एलिएट की पंक्ति है ) Time present and time past Are both present in the time future And time future contains in time past. रवि श्रीवास्तव अगर आज का वर्तमान कल की देन है और आने वाले कल में आज का वर्तमान और कल का अतीत दोनों शामिल होगें तो उत्तरउपनिवेशवाद और प्राच्यवाद की आधारभूत संकल्पना और दोनों की विचारधारात्मक भूमिका की पड़ताल के लिए इतिहास में जाना चाहिए। दरअसल उत्तरउपनिवेशवाद विश्वइतिहास में अफ्रोएशियन उपनिवेशों के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन एवं उसके बाद इन नवस्वाधीन देशों की राजनीतिक-सांस्कृतिक संदर्भों की ओर संकेत करता है। प्राच्यवाद, पश्चिम के उपनिवेशवाद समर्थक इतिहासकारों एवं बुद्धिजीवियों द्वारा एशियाई समाजों में औपनिवेशिक शासन की वैधता एवं प्रगतिशील भूमिका के पक्ष में गढ़ा गया वैचारिक तर्क है। उसका उद्देश्य उपनिवेशों की जनता को बौद्धिक रूप से सुन्न कर उसे अपने पक्ष में खड़ा करना है। अगर पुराने उपनिवेशवाद और आज के उत्तरऔपनिवेशिक पश्चिम की तुलना करें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि पहले की तुलना में आज का उपनिवेशवाद सैनिक शक्ति से कहीं अधिक विचार की शक्ति पर भरोसा करता है। यद्यपि उपनिवेशों की स्वाधीनता के बाद जब तक उनकी घरेलू एवं विदेशनीति में साम्राज्यवादी शक्तियों का सैनिक हस्तक्षेप इसका खंडन ही करता है। निकट अतीत में अफगानिस्तान एवं इराक में अमेरिकी नेतृत्व वाली सैनिक कारवाई से यही प्रमाणित होता है। यह उत्तरउपनिवेशवाद का नया सच है, आधा नवस्वाधीन कमजोर, गरीब एवं पिछड़े हुए राष्ट्रों के पक्ष में क्योंकि वे अब सर्वप्रभुतासंपन्न स्वतंत्र राष्ट्र हैं और आधा पुराने बलशाली और अमीर राष्ट्रों के पक्ष में क्योंकि एक समय उन्होंने पूरी दुनिया पर राज किया है। आधी हकीकत आधा ब्रिटिश इतिहासकार एरिक हॉब्सबाम ने बीसवीं सदी के इतिहास को अतिवादों का दौर - 'एज ऑफ एक्सट्रीम्स'- कहा है। यह दौर बड़ी-बड़ी क्रांतियों का दौर रहा है। इस दौर में दो-दो महायुद्ध हुए। इस दौर में उपनिवेशविरोधी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन परवान चढ़े। साथ ही यह दौर आस्था के महलों एवं समाजवादी किलों के भयावह पतन का गवाह भी रहा है। यह दौर अभूतपूर्व आर्थिक विकास के साथ-साथ स्वयं मानवनियति एवं मानव अस्तित्व पर छाये गहरे परमाणु खतरे का भोक्ता भी है। मनुष्य, प्रकृति एवं पर्यावरण, सभी असाधारण एवं अपूर्व ढंग से संकट का सामना कर चुके है। इस संकट की चपेट में कल के समाजवादी देश भी ही नहीं, 'बिंध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल' करने वाले पूँजीवादी देश भी है। इस विश्व व्यापी संकट का सिर्फ राजनीतिक एवं आर्थिक पहलू ही नहीं है। वह जितना सांस्कृतिक है, उतना ही नैतिक और बौद्धिक भी।

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