Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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Jijñäsa
कुल मिलाकर योरोप का नवजागरण अपने नेक इरादों, अभिप्रायों एवं मंतव्यों के लिए जनता के पक्ष में जनता के द्वारा लड़ा गया आंदोलन था। इस परिवर्तन के दूरगामी परिणाम निकले, न केवल वैज्ञानिक अवबोध (साइंटिफिक टेंपर) के विकास के क्षेत्र में बल्कि लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक जीवन के उत्थान के क्षत्र में भी। आगे चलकर राष्ट्र-राज्य की आधुनिक संकल्पना तथा धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक समाजवादी समाज की पूरी अवधारणा का आधार भी वही बना। उसकी सर्वोपरि विशेषता थी परिष्कृत सौंदर्यबोध एवं ऐहिक विश्वदृष्टि। दोनों ने मिलकर मनुष्य की ऐसी तर्कसंगत, विवेकपूर्ण और वैज्ञानिक प्रतिमा गढ़ी, जिसने आगे चलकर न केवल असहनशीलता, भ्रमों, रूढ़ियों और अंधविश्वासों तथा संक्रामक अंधविश्वासों से मुक्त न्यायप्रिय समाज को व्यवहार में उतारा, बल्कि इतिहास और दर्शन को अटकलपंथी मिथक की दुनिया से आजाद करते हुए मनुष्य और समाज के मन में नया विश्वास पैदा किया कि ईश्वर के बिना भी उनका काम चल सकता है। यह ऐहिक एवं ऐहिकीकरण की प्रक्रिया थी। यानि आधुनिकतावाद एवं ऐहिकरण साथ-साथ खड़े होते हैं। इसी से यह विश्वास पैदा हुआ कि बहुलवादी संस्कृतियों के बीच शांतिपूर्ण सहअतित्व संभव है। कहने की जरूरत नहीं कि बहुलवादी सामासिक संस्कृतियों एवं जनतांत्रिक मूल्यों के निर्माण में ऐहिक विश्वदृष्टि की ऐतिहासिक भूमिका रही है। आज का राजनीतिक जनतंत्र इसी मायने में कल की देन है। स्वतंत्रता, प्रशासनिक पारदर्शिता, उत्तरदायित्वपूर्ण असहमति, अपने विरोधियों को भी सुनने-समझने और सहने का सद्भावनापूर्ण विवेकयानि जिसे 'माडर्न' या आधुनिक कहा जाता है, अपनी इसी जनतांत्रिक प्रकृति के कारण असहमति, खंडन-मंडन तथा वादविवाद और संवाद की संस्कृति का पोषक सिद्ध हुआ।
उल्लेखनीय है कि इन सभी मामलों में इन आन्दोलनों का नेतृत्व उभरते हए औद्योगिक बुर्जुआ के बौद्धिक प्रतिनिधि मध्यवर्ग ने किया था। उसकी बौद्धिक आधारशिला फ्रांसीसी क्रांति के अगुआ दस्ते के बुद्धिजीवियों ने रखी थी। ये बुद्धिजीवी मध्यवर्ग के थे क्योंकि वे अभ्युदयशील पूँजीवाद के बौद्धिक प्रवक्ता थे। वे न तो पूरी तरह से कुलीन तंत्र का हिस्सा थे और न पूरी तरह औद्योगिक सर्वहारा की क्लासिक श्रेणी में आते थे। वे बंद अर्थव्यवस्था वाले सामंती समाज में स्वतंत्र उद्यम एवं अवसर की समानता के अभाव के विरूद्ध थे। सामंती निरंकुशता और चर्च की जकड़बंदी से आम जनता की मुक्ति के लिए उन्होंने स्वतंत्रता, समानता, विश्वबंधुत्व, जनतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता जैसे अधुनातन जीवनमूल्यों को विचारधारात्मक हथियार की तरह इस्तेमाल किया। अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, शराबखानों एवं कहवाघरों में लिख-बैठकर उन्होंने प्रचलित मूल्यमानों की नुक्ताचीनी के बीच से अपने पक्ष में नये मूल्यबोध वाला व्यापक जनाधार तैयार किया। ग्राम्शी ने योरोप के इस नवीन बौद्धिक उत्थान को ठीक ही सांस्कृतिक नवजागरण कहा था। तब से आज के मध्यवर्ग के बीच एक लंबा फासला है। उत्तरऔपनिवेशिक दौर में मध्यवर्ग की बदली हुई विचारधारात्मक भूमिका को हमेशा ध्यान में रखना होगा। आज के उपभोक्ता समाज का वह बहुत बड़ा हिस्सेदार है। उदीयमान पूँजीवाद ने मध्यकालीन जडसूत्रवाद को खारिज किया था। उसने बौद्धिक, कलात्मक एवं सौंदर्यबोधी सृजन स्वातंत्र्य को रीतिवाद से मुक्त करते हुए मानव-कल्याण की भावना से युक्त जीवन दृष्टि की प्रतिष्ठा की थी। मार्क्स ने अभ्युदयशील पूँजीवाद की प्रगतिशील क्रांतिकारी भूमिका को 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' में पहचाना था।
हेराल्ड लॉस्की ने लिखा है, "जो लोग नये सामाजिक दर्शन का सूत्रीकरण करते हैं, वे इसके भाग्य के स्वामी बिरले ही रह पाते है। एक बार जब यह गंभीर प्रभाव डालना शुरू कर देता है, तो फिर अपने प्रतिष्ठा-मूल्य के रूप में ऐसा हथियार अर्जित कर लेता है जिसे धारण करने वाले लोग यह मानकर चलते हैं कि वे अपने खास उद्देश्यों के लिए खास मनचाही शक्लों में (उसे) ढाल सकते हैं। इस अवस्था में उस पर एक पोंगापंथी रूढ़ि बन जाने का खतरा हमेशा मँडराता रहता है।"3 योरोप की नवजागरणकालीन विचारधारा के साथ भी यही हुआ। जिस विचारधारा को पूरी मानव-जाति की मुक्ति की नयी सोच का आधार बनना था, उसका नकली चरित्र परपीड़क और मानवद्वेषी बन गया।
फ्रांसीसी राज्यक्रांति के उसूलों एवं आदर्शो में निहित महान मानवतावादी संदेश को लेकर जो देश चले उन्होंने समाजवाद को अपनाया। जिन मुल्कों ने उन आदर्शों का उपयोग पूँजी के विस्तार के लिए किया उन्होंने दुनियाभर में सैनिक हस्तक्षेप के बल पर अपने उपनिवेश कायम किये। 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के शुरू तक एशियाई-अफ्रीकी देश पूरी तरह उपनिवेशवाद