Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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उत्तरउपनिवेशवाद और प्राच्यवाद : संकल्पना और स्वरूप / 163
उत्तर उपनिवेशवाद और प्राच्यवाद में कोई सीधा संबंध नहीं है। प्राच्यवाद का जन्म उपनिवेशवाद की कोख से हुआ है। उत्तर औपनिवेशिक दौर में उसका पल्लवन भिन्न तरीके से हुआ है। उसे ठीक-ठीक समझने के लिए योरोप की नवजागरणकालीन विचारधारा को ध्यान में रखना उचित होगा। मीरा नंदा ने बर्लिन के बैंजडे क्लब में 1783 में आयोजित बुद्धिजीवियों की एक सभा का उल्लेख किया है। यह सभा 'प्रबोधन क्या है' विषय पर आयोजित की गई थी। बहस में इमैनुएल कांट ने अपनी स्थापना में 'सेपेयर आडे' शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ है 'अपनी स्वयं की बुद्धि के उपयोग का साहस करो।' मीरा नंदा ने लिखा है कांट का यह शब्द योरोप में रेनेसां का आदर्श बन गया। मीरा नंदा ने बहुत विस्तार से समझाया है कि 'सेपेयर ऑडै' से कांट जिस विचार का समर्थन कर रहे थे उसका अर्थ सिर्फ इतना भर है कि अध्यात्मवादियों, धर्मशास्त्रियों, पुरोहितों एवं चर्च को भौतिक दुनिया के बारे में पराभौतिक विश्लेषण दरपेश करने के दावे और अधिकार से वंचित करना और इसके विपरीत पराभौतिकआध्यात्मिक तत्त्वों की जाँच के लिए प्रकृति-विज्ञान के दावों का उपयोग करना। मीरा नंदा की दृष्टि में जिसे 'रेनेसा प्रोजेक्ट' कहते हैं वह वस्तुतः धर्म के खिलाफ नहीं था, बल्कि धर्म इस भौतिक दुनिया के यथार्थ के बारे मे जो बताता था, उसके सत्यापन के लिए भौतिक प्रमाणों के उपयोग के पक्ष में था। विवेक-बुद्धि एवं तर्कप्रधान राज्य का यही अर्थ था। कहने की जरूरत नहीं कि यह प्रक्रिया अपने आप में स्वतंत्रता एवं धर्मनिरपेक्षता को मान्यता दिलाने वाली थी। इसलिए अपनी अन्तर्वस्तु में जनतांत्रिक भी थी। आश्चर्य नहीं कि प्रबोधनकालीन परियोजना में इन्द्रियानुभविक सत्य अथवा तथ्यानुमोदित विज्ञान का बोलबाला रहा। दूसरे शब्दों में, मनुष्य का भौतिक अस्तित्व उसकी चेतना को निर्धारित करताहै- 'मैटर प्रिसीड्स कांसशनेस' सिर्फ दर्शनशास्त्र या विचारों की दुनिया का विषय नहीं रहा। उसका संबंध मनुष्य की चेतना से परे भौतिक जगत के स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति से था जिसमें मनुष्य वास्तविक न कि काल्पनिक संबंधों में बँधते हैं और अपनी विचारधारात्मक ऐतिहासिक भूमिका के प्रति प्रायः सचेत होते हैं। इसे ही आधुनिकता कहा गया।
रिलीजन, मेटाफिजिक्स, सुपर कांशसनेस, स्प्रिचुअल या मिस्टिक एग्जिस्टेंस आदि को वैज्ञानिक तर्कबुद्धि के भीतर समेटने की प्रबोधनकालीन परियोजना के एकदम विपरीत वैज्ञानिक तर्कबुद्धि को उल्टा बाँधने की कोशिश को मीरा नंदा ने ठीक ही 'कांउटर रिनेसा' एवं स्टीफन ब्रोनर ने 'प्रतिक्रियावादी आधुनिकता' कहा है। इस दृष्टि से देखें तो विज्ञान, मानवस्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता एवं जनतंत्र एक ही श्रृंखला की अलग-अलग कड़ियाँ प्रतीत होगे। __ योरोप का नवजागरण क्रांतिकारी मावनतावाद को लेकर आया था, जो 1688 की अंग्रेज क्रांति से शुरू होकर 1776 में अमेरिकी स्वतंत्रता के घोषणापत्र में तथा 1789 में फ्रांसीसी क्रांति में चरम बिन्दु पर पहुँचा। प्रबोधन या रेनेसा नाम का ऐसा कोई अकेला आंदोलन नहीं था, जो पूरे योरोप में बाइबिल की पंक्ति की तरह 'प्रकाश हो और सर्वत्र प्रकाश हो गया' की तरह एक साथ फैल गया हो। इसके विपरीत वह बहस-मुबाहिसों का एक ऐसा लंबा और अंतहीन सिलसिला था जो विरासत में मिले बौद्धिक एवं धार्मिक परंपराओं के स्वपोषित अधिकारों के खिलाफ था। उसने पूरे योरोप को प्रभावित किया और भिन्न राष्ट्रीय संदर्भो में भिन्न रूपाकृति ग्रहण की।
एलन कोर्स ने 'एनसाइक्लोपीडिया ऑफ इन्लाइटन्मेंट' में बताया है कि अपनी देशकालगत भिन्नता के बावजूद जो बात 'कॉमन' थी, वह यह कि उसकी भूमिका 'क्रिटिकल क्रिटीक' जैसी थी। उसकी विशेषता यह थी कि वह सामाजिक न्याय और अधिकारों के विरूद्ध नहीं थी। वह राजशाही के साथ पादशाही-पादरीवाद एवं चर्च के स्वयंभू अधिकारों की मुखालफत करती थी। उसमें धर्म का दावा शामिल था जो मानव बुद्धि एवं विवेक पर बलात थोप दिये गए थे। किन्तु जिस चीज ने योरोप ही नहीं विश्वमानस को सबसे अधिक प्रभाविक किया वह फ्रांसीसी राज्यक्रांति के तीन नारे थे- स्वतंत्रता, समानता एवं विश्वबंधुत्वजो आगे चलकर दुनिया भर के उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्तिआंदोलन के आदर्श बन गए। इंग्लैंड में लॉक और ह्यूम से लेकर फ्रांस में वाल्तेयर, दिदरों एवं माटेस्क्यू, जर्मनी में कांट, लेसिंग एवं शिलर और बाद में मार्क्स-एंगेल्स, अमेरिका में जैफरसन, पेन एवं फ्रैंकलिन तथा हमारे यहाँ राजा राम मोहनराय, अक्षयकुमार दत्त, दादा भाई नौरोजी से लेकर नेहरू और अंबेडकर तक तर्कप्रधानयुग के दार्शनिक प्रबोधनकाल की इसी अनुशासनबद्धता से प्रभावित रहे हैं।