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Jijñāsa
पुस्तकें थीं, जिन्हें अकबर ने यति की मृत्यु के बाद भी. अपने महल मे संभाल कर रखा था। उसका विचार या कि किसी सुयोग्य महात्मा के मिलने पर वह इन ग्रन्थों को अर्पित कर देगा। अन्ततः उसने ये सारे ग्रन्थ, हार्दिक अनुरोध के साथ सन् 1582 में आचार्य हीरविजयसूरि को समर्पित कर दिये।'
पद्यसुन्दर जैनधर्मावलम्बी था। वह शहंशाह का नियत सहचर भी था। परन्तु उसके कारण अकबर जैन धर्म के प्रति विशेष आकृष्ट नहीं हो सका था। पद्यसुन्दर की संगति के बावजूद न उसने मांसाहार छोड़ा था, न शिकार पर पाबन्दी लगाई थी, न ब्रह्मचर्य अपनाया था और न ही जैन तथा अन्य तीर्थों को जजियाकर से मुक्त किया था। वस्तुत ये सारे कार्य उसने आचार्य हीरविजयसूरि के दर्शन पाने तथा उनकी देशनाओं को अमृत पीने के बाद ही किये। अब उस विलक्षण प्रसंग की समीक्षा की जा रही है।
पद्यसागरगणि प्रणीत जगद्गुरूकाव्य के विवरणानुसार एक दिन फतेहपुर सीकरी के शाही महल में बैठा अकबर राजपथ की ओर देख रहा था। तभी सुन्दर वस्त्रालंकृत एक रमणी पालकी से जाती दीखी। उसके साथ प्रियजनों का दल भी था। शहंशाह के पूछने पर सेवकों ने बताया हुजूर. यह एक जैन श्राविका है जिसने मात्र गर्म पान पीकर छ: महीने का कठिन
औपवासिक ताप किया है। आज पर्व के अवसर पर यह दर्शनार्थ जैनमन्दिर जा रही है। यह सुनते ही विलासी प्रकृति शंहशाह विस्मित हो उठा। उसने अविश्वासपूर्वक महिला को बुलवाया, उससे बातचीत की उसकी दिव्याभा एवं वाणी से प्रभावित भी हुआ। परन्तु उसने उसे अपने महल के पास ही कुछ दिन रहने का आदेश सुना कर, कुछ विश्वस्त सेवकों को चौकसी के लिये नियुक्त कर दिया। प्राय: डेढ महीने बाद, शहंशाह के पूछने पर जब सेवकों में उस तपस्विनी श्राविका की दिनचर्या बताई तो वह श्रद्धाभिभूत हो उठा। उसने विनम्रभाव से रमणी से कहा. माता, तू इतना कठिन तप क्यों और कैसे सम्पन्न कर रही है? सेवकों ने बताया कि इन डेढ महीनों से भी तुमने केवल गर्म जल पिया है, और वह भी मात्र दिन में।
महिला ने शान्तभाव से कहा, राजन्! यह तप केवल आत्महित के लिये किया जाता है और यह सब संभव हो पाता हे साक्षान धर्म की मूर्ति के समान महात्मा हीरविजयसूरि सरीखे धर्मगुरूओं की कृपा से।
शहंशाह ने सन्तोष व्यक्त करते हुए रमणी से डेढ महीने रोक रखने की क्षमा मांगी. और उसे सादर उसके घर भेज दिया। श्राविका ने भी जान लिया कि अपने विश्वास को दृढ बनाने के ही लिये शहंशाह ने ऐसा किया वस्तुत: वह महिला अकबर के ही सुपरिचित साहूकार सेठ थानसिंह के परिवार की थी और उसका नाम था चम्पा।
शहंशाह स्वभावत: सत्यान्वेषी, तत्वाग्रही तथा श्रद्धालु स्वभाव का था। पारिवारिक एवं सांस्कृतिक संस्कारों के कारण वह प्रथमदृष्ट्या तो सन्देहबाही जैसा आचरण करता धार्मिक सन्दर्भो में, परन्तु सन्देह दूर होते ही वह परमश्रद्धालु बन जाना। जब उसने स्वयं देख लिया कि यह महिला डेढ महीने से मात्र जल पीकर जीवित है (जब कि वह स्वयं एक दो दिन भी बिना जल नहीं रह सकता था) तो उसे उसके विगत छ: महिने के निर्जल उपवास पर भी सुदृढ श्रद्धा हो गई।
आचार्य हीरविजयसूरि का नाम पहली बार अकबर ने श्राविका चम्पा से ही सुना। वह उनके दर्शनार्थ उत्कन्ठिन हो उठा। उसने इत्तमांद खां गुजराती नामक विश्वस्त अधिकारी से सम्पूर्ण जानकारी एकत्र की, अनेक बार आचार्य हीरविजय के दर्शन कर चुका था। इत्तमाद खान सन् 1551 से 72 तक, गुजरात के सुल्तान अहमदशाह तथा मुजफ्फर शाह के शासनकाल में, राजकार्यों में अग्रगण्य अमीर था। 1583-84 ई. में अकबर ने पुन: उसे गुजरात का सूबेदार बनाया था।
इतमादखान से सूचनाएं एकत्र करने के बाद ही अकबर ने मोदी और कमाल नामक अपने दो विशिष्ट सेवकों को. फरमान सहित अहमदावाद के सूबेदार शहाबुद्दीन अहमद खां के पास भेजा कि वह जैनाचार्य श्री हीरविजयसूरिमहाराज को आदरपूर्वक दरबार में भेज दें।
फरमान पाते ही अहमदाबाद में खलबली मच गई। आचार्य उस समय आज के भरूच जिले मे खम्भात स्तम्भतीर्थ की खाड़ी के किनारे गन्धार बन्दर मे चातुर्मास्य कर रहे थे। श्रावकों ने वहां पहुंच कर आचार्यश्री को शहंशाह के पास जाने