Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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शहंशाह अकबर की जैन धर्मनिष्ठा : एक समीक्षा / 89
शहंशाह अकबर की धर्मनिष्ठा का यह लम्बा इतिहास वस्तुत: इतिहास ग्रन्थों का विषय है। परन्तु इस लेख में लेखक के द्वारा कुछ अतिविशिष्ट, समकालीन संस्कृतग्रंथों के आधार पर अत्यन्त संक्षेप में लिखा गया है। यह विवरण उतना ही सत्य एवं सार्थक है जितना महाराज हर्षदेव के विषय में बाणभट्ट-प्रणीत हर्षचरित का विवरण। विशेषतः अकबरसहस्रनाम में परिगणित अठारह- बीस नामों के अतिरिक्त अन्य सारे नाम कवि द्वारा कल्पित हैं जो अकबर का कर्तव्य प्रकट करते हैं।
संदर्भ : 'गृहादथाऽऽनायिमङ्गजन्मना स खानरवानेन च मुक्तमग्रतः। महीमरूत्वान प्रमदादिवोपदां मुनीशितुर्योकयतिस्म पुस्तकम्।। हीर सर्ग-14,84 ' तदा प्रदा तत्पदपद्यषट्पदो प्रतिमेतरवानः शुभगीरदोऽवदत्। इहास्ति शस्ताकृतिराप्तवाग्वति महामति_र इति व्रतिप्रभ्रः।। विजयप्रशस्ति: Jआचार्य हीरविजय जी अपनी 6 महीने की यात्रा में कहां कितने दिन रूके क्या घटनायें घटी, एतदर्थ द्रष्टव्यः कृपारसकोश: की भूमिका (मुनि जिनविजयकृत)
* यह सूची विजयप्रशस्तिकाव्य (9,28 संख्यक पद्य) की टीका में उपलब्ध है। 5 पुरेऽनयीवावनिमानुयिवान्यएष मीने तरणेस्तनूरूहः। स मत्सरीवापकरिष्यति प्रभी। क्षिते: पतीनामुत नीवृतांमय।। गुरूर्जगौ ज्योतिषिका विदन्त्यदो न धार्मिकावन्यदवैमि वाङ्मयात्। यतः प्रवृन्तिगृहमेधिनामियं न मुक्ति मार्गे पथिकी बभूवुषाम्।। हीर सर्ग14.65-66 • रक्षामो जगदङ्गिनी न च मृषावादं वदामः क्वचिनादत्तं ग्रहयामहे मृगद्दशां बन्धूमवामः पुनः। आवध्मो न परिग्रंह निशि पुनर्नाश्नीमहि ब्रूमहे ज्योतिष्कादि न भूषणानि न वयं दध्मो नृपेतान्व्रतान्।। हीर. 22. 250 " इयं तु पूज्येषु परोपकारिता प्रसादनीयं निजकार्यमप्यथ। तमूचिवानेष यझिनोऽखिलानसूनिवावैमि तत: परोऽस्तु कः।। हीर. 24.279
। यद्यपि हीरसौभाग्य में शहंशाह के मांसाहार, त्याग की चर्चा नहीं है। परन्तु विंसेण्ट स्मिथ ने स्पष्ट लिखा है कि शंहशाह ने भी सूरि को वचन दिया कि अब वह केवल रविवार को मांसाहार करेगा और वह भी मात्र हिरन का। संभव है स्मिथ को यह तथ्य मौसरात की डायरी में मिला हो।
" गुणश्रेणीमणिसिन्धोः श्रीहरिविजयप्रभाः। जगद्गुरूरिवं बिरूवं प्रददे तदा।। हरि. 14. 205 १० शेखूजी पाहडी श्रीमदानिआरा भवन्त्वमी।
आयुष्मन्त: साहिजाता मूर्तिभेदा इवेशितुः।। 119 भिष्वपि प्रकृतिबन्धुरबन्धुवनजोऽस्य नृपतेः पदयोग्यः। चन्द्र-दीप-दिनप-त्रिकमध्ये भानुरेव भुवनेऽधिकतेजाः।। 120 "भूयस्तरां परिचितेर्विदितस्वभाव: स्वामी नृणामयमयाचि भया कृपार्थम्। श्रीवाचकेन्द्रसकलेन्द्रगुरूप्रसादादुत्पन्नबुद्धिविभवाद्धृतधाष्टर्य केन।। 121 12 यान् साम्प्रतं भरतसाधुषु लब्धसीमान् दृष्ट्वा श्रुतान् श्रवणलोचनयोर्विवादम्। नित्ये स्वयं परिसमाप्तिमसौ महीश: सत्सङ्गतावतितरां रसिकस्वभावः।। 122 श्रीयुक्तहीरविजयाभिधसूरिराजां तेषां विशेषसुकृताय सहायभाजाम्। जन्तुष्चमारिमदिशद्यवयं क्यास्तत्पुण्यमानधिगच्छति सर्ववेदी।। 123 जालच्युतास्त्रिमिगणस्विमिभिर्मिमेल पोतांश्चुचुम्ब खगवृन्दमपास्तपाशम्। सूनोपनीतसूरभि कुलभार वेगाद्यन्तद् विजृम्भितममुष्य कृपालुमूर्ते।। 124 1" यज्जन्तुजातमभयं प्रतिमासषट्कं यच्चाजनिष्ट विभयः सुरभीसमूहः। इत्यादि शासन समुन्नतिकारणेषु ग्रन्थोऽयमेव भवतिस्म परं निमित्तम्।। 127 " द्रष्टव्य मेरा शोधलेख: (अप्रकाशित) संस्कृत सहस्रनाम परम्परा में अकबरसहस्रनाम: एक समीक्षा।