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शहंशाह अकबर की जैन धर्मनिष्ठा : एक समीक्षा / 81
12. शहंशाह अकबर की जैन धर्मनिष्ठा : एक समीक्षा
अभिराज राजेन्द्र मिश्र
अकबर महान् का नाम अशोक, सिकन्दर तथा नेपोलियन बोनापार्ट के साथ लिया जाता है। परन्तु इतिहासकारों ने इन चारों को 'महान्' (The great) के विरूद से अलंकृत किया है। परन्तु इन महामानवों की महत्ता' पात्र इनकी दिग्विजयों के कारण नहीं थी। प्रत्युत उनके 'महान् होने के मूल मे थे उनके वे दुर्लभ मानवीय गण जो उन्हें 'आश्चर्यकर्मा' सिद्ध करते हैं।
प्रस्तुत आलेख मे मैं अकबर (1556-1605) ई. के विषय में जो भी प्रस्तुत तथ्म करने जा रहा हूँ उसके स्रोत निम्नलिखित संस्कृत ग्रंथ हैं :
1. पद्मसागरगणि प्रणीत जगद्गुरूकाव्यम् 2. शान्तिचन्द्रोपाध्याकृत कृपारसकोश: 3. हेमविजयगणिप्रणीत विजयप्रशस्तिमहाकाव्यम् 4. देवविमलगणिप्रणीत हीरसौभाग्यमहाकाव्यम् तथा 5. श्री धर्मसागरगणि प्रणीत तपागच्छगुर्वावली। 6. अज्ञातकर्तृक अकबरसहस्रनाम
विसेण्ट स्मिथ ने स्पष्टत: लिखा है कि शहंशाह अकबर स्नान के अनन्तर सूर्यदेव को अर्घ्य अर्पित करता था। वह ललाट पर तिलक भी लगाता था तथा समय-समय पर यज्ञ भी करता था। ओम् के प्रति उसकी अपार निष्ठा थी। यद्यपि ये सारे तथ्य यह संकेत देते हैं कि अकबर आहेत धर्म के साथ ही साथ वैदिक देशनाओं से भी प्रभावित था। क्योंकि याग परम्वपरा विशुद्ध रूप से वैदिकपरम्परा रही है। परन्तु गणपति. सरस्वती तथा सूर्य सरीखे देवों की प्रतिष्ठा तो वैदिक एवं जैन दोनों ही मतों में समान रही है। अत: सूर्योपासना की निष्ठा, अकबर में रानी जोधाबाई के कारण ही आई होगी, यह सोच एकांगी प्रतीत होती है। क्योंकि यह भी प्रमाण उपलब्ध है कि कादम्बरी के टीकाकार आचार्य भानुचन्द्रगणि ने ही सन् 1586 ई. में शहंशाह अकबर को 'सूर्यसहस्रनाम' का मर्म समझाया था। ऐसा प्रतीत होता है. इस घटना के बाद से ही निष्ठावान अकबर ने सूर्य को अर्घ्य देना प्रारम्भ किया होगा।
यूँ तो शहंशाह ने अनेक विद्वानों, पण्डितों, कलाकारों तथा विविध धर्मावलम्बियों को अपने साहचर्य में रखा था। वह यथावसर उन सब से परामर्श भी लेता रहता था। पद्यसुन्दर नामक एक नागपुरीय तपागच्छी यति भी बचपन से ही अकबर का सखा बन गया था, तथा सदैव शहंशाह के ही रहता था उसके ग्रन्थागार में वैदिक एवं जैन परम्परा की हजारों मूल्यवान