Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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Jijnvasa
परम्परा से जुड़ जाता है। मैंने यह भी कहा कि संस्कृति जातिमूलक नहीं होती बल्कि समाज संस्कृति का वहन करने से अपनी पहचान प्राप्त करता हैं।
जयपुर में विश्वविद्यालय के जैन अध्ययन केन्द्र एवं प्राकृतभारती के संयुक्ततत्त्वावधान में मैंने जैन पोलिटिकल थॉट पर व्याख्यान दिये जो बाद में प्राकृतभारती से प्रकाशित हुए। बहुत दिनों से जो मैं राज्य और धर्म के सम्बन्ध के विषय में सोचता रहा था उसे इस पुस्तक कहने का अवसर मिला। आत्मानुशासन ही स्वराज्य और सभी राज्य-व्यवस्थाओं का आधार है। राज्य व्यवस्थाएँ नैतिक आदर्शों के अनुकूल दण्ड-विधान का प्रबन्ध करती हैं। आदर्श राज्य में धर्म अथवा नैतिक आदशी का दण्ड को अनुयायी होना चाहिए किन्तु यथार्थ में यह अनुरूपता की कड़ी कच्ची मिलती है।
प्रायः इन्हीं दिनों हवाई की एक अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में द आइडिया ऑफ गॉड इन हिस्ट्री पर मैंने एक आलेख पढ़ा और 1981 में मेक्सिको सिटी में यूनेस्को द्वारा यूनिवर्सिटी पर आमंत्रित एक गोष्ठी में द आइडिया ऑफ ए फ्यूचर यूनिवर्सिटी पर मैंने अपने शिक्षा विषयक विचारों को व्यक्त किया। शिक्षा ही संस्कृति की मूल्यजनक प्रक्रिया है और भविष्य की शिक्षा तभी सार्थक होगी जब श्री अरविन्द का स्वप्न साकार होगा।
1981-82 में अज्ञेय जी के निमन्त्रण पर मैंने वत्सल-निधि व्याख्यानमाला में भारतीय परम्परा के मूल स्वर पर तीन व्याख्यान दिये। श्रोताओं में दिल्ली के अनेक विशिष्ट महानुभाव थे, जैसे-श्रीमति कपिला वात्स्यायन, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लोकेश चन्द्र आदि। इस पुस्तक पर के. के. बिड़ला फाउण्डेशन्स का प्रथम शंकर सम्मान दिया गया।
श्रीमति गाँधी के फिर से सत्ता में आने पर 1982 में मुझे राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर में कुलपति पद के लिए पुन: निमन्त्रण पत्र मिला किन्तु मैंने वह स्वीकार नहीं किया। 1983 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कुलपति पद का कार्य तात्कालिक रूप से स्वीकार किया। 1984 में विश्वविद्यालय सेवा से अवकाश मिला और उसी समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में सयाजीराव गायकवाड़ चेयर पर विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में तत्कालीन कुलपति प्रो. इकबाल नारायण के द्वारा मेरी नियुक्ति हुई। 1984 में ही मेरी फाउण्डेशन्स ऑफ इण्डियन कल्चर दो जिल्दों में प्रकाशित हुई। श्रीमति इन्दिरा गाँधी ने उसका विमोचन किया और इस अवसर पर दिल्ली के कुछ प्रमुख विद्वानों और विचारकों की उनकी अध्यक्षता में उन्हीं के आवास पर गोष्ठी भी हुई।
इस ग्रन्थ में भारतीय संस्कृति को मात्र भौगोलिक और जातीय घटकों के आधार पर ऐतिहासिक संयोग से उत्पन्न सामग्री के रूप में नहीं लिया गया है बल्कि उसे सनातन सत्य की खोज की परम्परा के रूप में माना गया है। इस प्रकार संस्कृति इतिहास में अपूर्ण रूप से अभिव्यक्त सनातनविद्या से अभिन्न है। सनातनविद्या अखण्ड और अनन्त होते हुए भी अपनी व्यंजक ऐतिहासिक परम्परा के कारण नाना विभक्त रूपों में मिलती है। इसके अतिरिक्त सनातन और तात्कालिक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक गवेषणाओं के सम्मिश्रण के कारण संस्कृति में भी नाना स्तरीय सम्मिश्रण मिलता है। संस्कृति के मौलिक तत्त्व और स्थायी संरचना को उसकी ऐतिहासिक विकृतियों से अलग रखना आवश्यक है। संस्कृति का तात्त्विकबोध उसके ऐतिहासिक ज्ञान से असम्पृक्त न होते हुए भी उससे अभिन्न नहीं है। इस पुस्तक में भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक ताने-बाने और उसके ऐतिहासिक ढाँचे के पीछे सनातन तत्त्वों को देखने का प्रयास है। इस प्रकार से यह पुस्तक वस्तुत: भारतीय संस्कृति में अन्तर्निहित एक शाश्वतदर्शन की खोज है। आध्यात्मिक साधना या योग ही संस्कृति की मौलिक जन्मभूमि है। श्री अरविन्द की फाउण्डेशन्स ऑफ इण्डियन कल्चर, गोपीनाथ कविराज एवं कुमारस्वामी की रचनाओं से इसमें प्रेरणा मिली है। इसमें उनकी मौलिक दृष्टि को ऐतिहासिक साक्ष्यों के सन्दर्भ मे प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। भारतीय संस्कृति के दार्शनिक आधार पर उसके भौतिक उपादान किस प्रकार संश्लिष्ट हैं इस पर पुस्तक में निरन्तर विचार है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सयाजीराव गायकवाड़ व्याख्यानों के रूप में 1984 में प्रकाशित Aspects of Indian Culture में यह अनुसन्धान आगे बढ़ाया गया है। संस्कृति विचार प्रधान और आदर्श प्रधान होती है, किन्तु वह अपने आप में एक जीवन-दर्शन होती है, एक प्रकार की अपनी आदर्शोन्मुख चेतना जो आत्मकृतित्व की