Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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विचार यात्रा / xxl
इस बीच शल्य जी ने मेरा एक लेख सत् के दो पक्ष... समकालीन भारतीय दर्शन में प्रकाशित किया। अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के बड़ौदा अधिवेशन में मुझे अध्यक्ष चुना गया किन्तु अस्वस्थ होने के कारण मैं वहाँ जा नहीं सका। पूना के अधिवेशन के लिए मेरा अध्यक्षीय भाषण मानव-पर्येषणा और दार्शनिक विमर्श विषय पर अवश्य प्रकाशित हुआ। पंजाब विश्वविद्यालय से प्रकाशित Buddhism नाम के संकलन में बौद्ध दर्शन पर मेरा एक लम्बा लेख प्रकाशित हुआ। ऐसे ही डायोजिनस में Life and death of languages पर मेरा लेख छपा। जर्मनी से Yog-Heute नाम के संकलन में भी मेरा लेख प्रकाशित हुआ । प्रायः उसी समय माउन्टेन पाथ में पंतजलि के योग पर भी मेरा एक लेख छपा। दार्शनिक त्रैमासिक में मेरे अनेक लेख प्रकाशित हुए। कान्सेप्ट ऑव प्रमाण इन फिलॉसफी विषय पर भी विश्वभारती से लेख इसी समय प्रकाशित हुए। मेरा निष्कर्ष यह था कि प्रमाण ज्ञान रूप ही होता है। ज्ञान स्वप्रकाश होता है और उसकी अन्त: संगति उसके प्रामाण्य को समर्थित करती है। विखण्डित ज्ञान, ज्ञान और अज्ञान का मिला-जुला रूप होने से पूर्णतया अप्रामणिक होता है, यह सत्य नहीं हो सकता। सत्य अनेक भूमिक अखण्ड ज्ञान प्रमाण का आदर्श है।
अक्टूबर 1974 में मैंने राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति के पद पर कार्य करना प्रारम्भ किया। प्रायः इसके बाद के तीन वर्ष एक झंझावात में गुजर गये। इस बीच मुझे उच्च शिक्षा व्यवस्था पर अनेक रिपोर्ट्स पढ़ने का अवसर मिला। लार्ड राबिन्स की रिपोर्ट और भारतीय रिपोर्ट्स का महान् अन्तर देखकर मेरी आंखें खुलीं।
केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त एक उच्च स्तरीय समिति, जिसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के कार्य की समीक्षा करनी थी, में मुझे श्रीमति इन्दिरा गाँधी ने मनोनीत किया। इस समिति के सदस्य के रूप में मुझे भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थानों को देखने का अवसर मिला। मैंने शिक्षा के विषय में अपने विचार कुछ लेखों में प्रकाशित किये जैसे सेक्यूलरिज्म एण्ड एजुकेशन प्रकाशित इण्डियन लॉ इन्स्टीट्यूट, नयी दिल्ली
इसी बीच एल. डी. इन्स्टीटयूट, अहमदाबाद के निमंत्रण पर मैंने श्रमण परम्परा पर कुछ व्याख्यान दिये जो उक्त संस्थान से प्रकाशित किये गये। ओरिजिन्स ऑव बुद्धिज्म में मैंने इस बात का प्रतिपादन किया था कि वैदिक परम्परा के साथसाथ उससे पृथक् श्रमण परम्परा भी थी। इसी परम्परा का इन व्याख्यानों में विवरण दिया गया है। 1977 में दिल्ली विश्वविद्यालय में मैंने आर. के. जैन मेमोरियल लेक्चर्स दिये जो कि जैन एथिक्स एण्ड लॉजिक शीर्षक से बाद में प्रकाशित हुए। इन व्याख्यानों पर कुछ दिगम्बर जैन विद्वानों ने बहुत आपत्ति उठायी, क्योंकि इनमें कहा गया था कि प्रारम्भिक युग में जैन भिक्षु भिक्षा में प्राप्त आमिष ग्रहण कर लेते थे।
1978 में मैं जयपुर छोड़कर मित्रवर प्रो. गोवर्द्धन राय शर्मा के निमंत्रण पर इलाहाबाद लौट आया। उसी वर्ष अक्टूबर में भारतीय पुरातत्त्व परिषद् के धारवाड़ के वार्षिक अधिवेशन में पुरातत्त्व की अवधारणा विषयक अध्यक्षीय भाषण में अपने विचार प्रकट किये और यह कहा कि पुरावशेषों की वर्तमान व्याख्या समाजशास्त्रीय अभिकल्पनाओं और नृतत्वीय समानान्तर दृष्टान्तों पर निर्भर करती है। इस प्रकार पुरातत्त्व अपने साक्ष्यों की एकांगिता के कारण ही समाज की भौतिकवादी व्याख्या में उपयुक्त बन जाता है।
धारवाड़ में ही मेरी संयोगवश भेंट कन्नड़ के प्रसिद्ध लेखक श्री बेन्द्रे से हुई। मैंने उसी दिन ऋवेद संहिता का आद्योपान्त अध्ययन पूरा किया था। श्री बेन्द्रे से एक लम्बे संवाद में मुझे इस बात का ध्यान आया कि वेदों का अर्थ करने में ज्योतिषशास्त्रीय और वैज्ञानिक तत्त्वों की एक प्रधान भूमिका है। मैंने इस दृष्टि से वेद का अध्ययन नहीं किया था अतएव उनका पुनः अध्ययन आरम्भ किया। उसी वर्ष इण्डियन हिस्ट्री एण्ड कल्चर सोसाइटी के अधिवेशन के अपने अध्यक्षीय भाषण में मैंने इण्डियन आइडेण्टिटी के उपर विचार करते हुए कहा कि जैसे प्राकृतिक पदार्थों का ज्ञान प्रत्यक्ष से आरम्भ होता है ऐसे ही संस्कृति का ज्ञान भाषाप्रधान सेकेतों और प्रतीकों के ज्ञान से आरम्भ होता है। अपने को समझने के प्रयास में हम अपनी संस्कृति को समझते हैं और इस प्रक्रिया में हमारा अन्तरालाप और आत्मविमर्श सांस्कृतिक भाषा और