Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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विचार-यात्रा / xxxi
मुझे ऐसा लगता है कि सभी युगों में दर्शन की अहम् भूमिका रही है क्योंकि बिना अनुभव पर विचार-विमर्श के अथवा सामाजिक स्तर पर बिना प्रचलित ज्ञान-विज्ञान और मतवादों की समीक्षा के मानव जीवन पथभ्रष्ट हो जाता है। यह दार्शनिक समीक्षा अनित्य जीवन की सनातन सत्य के सूत्रों के आधार पर होती है। सनातन सत्य का पता महापुरुषों के जीवन अनुभव
और वाणी से कुछ-कुछ पता चलता है। प्राय: इस लुप्त सरस्वती से प्रच्छालित दृष्टि ही सही दार्शनिक विवेचन में समर्थ है। यह कह सकते हैं कि दार्शनिक चिन्तन सनातनविद्या का किसी विशेष परिप्रेक्ष्य से अपने युग में बोधगम्य रूप से पुन:आत्मसात्करण है। वर्तमान भारत में दयानन्द, रामकृष्ण, परमहंस, विवेकानन्द, गाँधी, श्री अरविन्द, रमण महर्षि आदि मनीषी जिन्होंने सनातनविद्या को उजागर किया है उसको आत्मसात् कर भारतीय दर्शन को पुनर्गठित होना चाहिए था। किन्तु यह दुर्भाग्य है कि ऐसा नहीं हुआ जो अमूल्यनिधि मनीषियों ने भारतीय मानस के सामने बिखेरी है उसे बह पश्चिम की चकाचौंध में ठीक से नहीं पहचान पाये हैं अपितु उसे भुलाने में तत्पर हैं।