Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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भारतीय संस्कृति के पुरोधा मनीषी प्रो. गोविन्द चन्द्र / 29
संस्कृति चिन्तन
संस्कृति के प्रत्यय और भारतीय संस्कृति की सरंचना पर न केवल बहुत विस्तार से बल्कि बहुत अन्तर्भेदी और सूक्ष्मग्राही रूप में पांडे जी ने अपनी रचनाओं में लिखा है।
प्रोफेसर गोविन्द चन्द्र पाण्डे का मानना है कि संस्कृति तत्वतः एक मूल्य व्यवस्था है, जिसका ज्ञान आत्मबोध के अथवा आदर्श - बोध के विवेचन से होता है। संस्कृति को प्रकृति से भिन्न एक स्वतन्त्र मूल्य- विश्व के रूप में देखा जाना चहिए। स्वातन्त्र्यमूलक होने के कारण संस्कृति विज्ञान का विषय नही है, यहां तक कि समाज विज्ञान का भी नहीं । संस्कृति की पहचान उसके मूल्यों और संकेतों के द्वारा व्यक्त होती है, न कि उसके अपनाने वालों के भौतिक रूप में। किसी समाज को उसके श्रेष्ठ पुरुषों की आदर्श कल्पना एवं शिक्षार्जित संकेतों में आभासमान संस्कृति का समाज मानना चाहिए।
संस्कृति से ही समुदाय की पहचान होती है। संस्कृति के द्वारा ही समाज परिभाषित होता है जैसे कि मनुष्य की वास्तविक पहचान इस बात से होती है कि वह किन आदर्शों को चरितार्थ करने में प्रयत्नशील होता है। मूल्यों के अनुसरण एवं अंगीकरण की प्रक्रिया के रूप में संस्कृति एक सामाजिक परम्परा का रूप धारण करती है। इसी प्रक्रिया से उसमें ऐतिहासिकता अन्तर्निहित है किन्तु यह ऐतिहासिकता मात्र सभ्यता की बहिरंग कारण कार्य श्रृंखला नहीं है बल्कि मुख्यतः अन्तरंग साधना की द्वन्द्वात्मक क्रमिकता है।
गोविन्द चन्द्र पाण्डे यह नहीं मानते कि भारतीय संस्कृति सामासिक या समन्वयात्मक है या सम्मिश्र संस्कृति है । उनका कथन है कि भारतीय संस्कृति मिली-जुली संस्कृति नहीं है, यद्यपि भारतीय सभ्यता में नाना संस्कृतियों का मेलजोल देखा जा सकता है। संस्कृति जातियों से नहीं बनायी जाती, बल्कि जातियाँ संस्कृति से परिभाषित होती हैं। भारतीय संस्कृति की तथाकथित सामासिकता वास्तव में सभ्यता के क्षेत्र में ही लागू होती है और इस क्षेत्र में वह भारत की कोई विशेषता नहीं है। सभी सभ्यताएँ सामासिक होती हैं जैसे सभी जातियाँ विमिश्रित होती हैं। वस्तुतः संस्कृति से भारतीयता परिभाषित है, न कि भारतीयता से संस्कृति । भारतीय संस्कृति का मूलभूत तत्व बहुत गहरा है ओर एक सशक्त परंपरा के रूप में हमारे इतिहास से जुड़ा हुआ है। हमारी सांस्कृतिक एकता सामासिक या समन्वयात्मक नहीं है, तात्विक और आधारभूत है।
वह
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व क्या है और उसका मुख्य आधार क्या है, इसका उत्तर देने से पूर्व यदि हम यह जानने का प्रयास करें कि अन्य संस्कृतियों का मूल तत्व क्या है तो अपनी बात को स्पष्ट करना आसान होगा। यूनानी संस्कृति में जीवन का आदर्श माना गया बौद्धिक ज्ञान की प्राप्ति, और इस बौद्धिक ज्ञान का अर्थ है मनुष्य के सामाजिक स्वरूप ईसाई का तार्किक ज्ञान। चीन की परम्परा में एक नैतिक जीवन जीने का आदर्श प्रमुख विचार के रूप में मिलता है। यहूदी, अथवा आधुनिक पश्चिमी परम्पराओं में आदर्श जीवन की कल्पना ऐतिहासिक काल में कर्म-जीवन की है। उनके लिए इतिहास विभिन्न क्रान्तियों से गुजरता हुआ एक आदर्श समाज की ओर बढ़ता है। पश्चिम की परम्परा मूलतः समाजमूलक है और वह व्यक्ति का कल्याण एक आदर्श समाज की सदस्यता के रूप में देखती है और उसी दिशा में सारी शक्तियाँ संयोजित करना चाहती है।
भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है आध्यात्मिक चेतना जो व्यक्ति के स्तर पर आत्मज्ञान के आदर्श के रूप में एवं संस्कृति के स्तर पर एकन्ववाद एवं प्रेम के आदर्श के रूप में व्यक्त है। इस आदर्श की प्रस्तुति एवं व्याख्या की परम्परा हमें प्राचीन भारत में उपनिषदों, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, भगवद्गीता योग दर्शन एवं शंकर के अद्वैत वेदांत में, मध्य काल में भक्ति आन्दोलन के विभिन्न संतों एवं सूफी मत के प्रचारकों के रूप में, आधुनिक काल में रामकृष्ण, विवेकानन्द. अरविन्द, रमण महर्षि एवं अन्य साधकों के रूप में मिलती है। लौकिक स्तर पर इसके प्रचार के लिए धार्मिक एवं सामाजिक प्रतीकों का विधान रखा गया।