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72 / Jijnäsa
हैं। मन के निर्वासन की दृष्टि, सुखद्य तथा आत्मशेष की दृष्टि भी यहाँ निरूपित है। तत्त्वबोध से अविद्या एवं वासना का क्षय सम्भव होता है। अर्जुन को यह प्राप्त हुआ है। यही उसकी कृतार्थता है। यह सात अध्यायों का सार संक्षेप टीका में कहा गया है। इस उपाख्यान से प्रतीत होता है कि गीता इन्हीं पूर्व कथित नैतिक जिज्ञासाओं का प्रमाणपूर्वक समाधान प्रस्तुत करती है।
गीता का प्रमुख नैतिक सिद्धान्त : कर्मयोग गीता के नैतिक चिन्तन का मूलाधार कर्मयोग का सिद्धान्त है। स्वयं श्रीकृष्ण कह रहे हैं
"संन्यासः कर्मयोगश्च निश्रेयस्करावुभी। तयोस्तु कर्मसंन्यासात् कर्मयोगो विशिष्यते।।"
- गीता 5.2 संन्यास और कर्मयोग दोनों नि:श्रेयस्कर हैं परन्तु इन दोनों में कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग ही अधिक श्रेष्ठ है। प्रसिद्ध दार्शनिक प्रो. सङ्गमलाल पाण्डेय गीता की कथावस्तु को शाश्वत नैतिक कथा के रूप में स्वीकारते हैं- 'ऐतिहासिक अर्जुन नैतिक मन है और ऐतिहासिक कृष्ण विवेक है। ऐतिहासिक कुरुक्षेत्र हमारा व्यक्तित्व है। इस प्रकार ऐतिहासिक घटना नैतिक घटना की मूर्ति है।' (नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, सङ्गमलालपाण्डेय, सेन्ट्रल पब्लिशिंग हाउस, इलाहाबाद - 1997 पृ. 202)
अर्जुन के लिए लड़ना कर्म है, नहीं लड़ना अकर्म है। अत: अकर्म से कर्म अच्छा है, परन्तु लड़ने में क्या हिंसा नहीं है? क्या हिंसा पाप नहीं है? इन नैतिक प्रश्नों की समीक्षा एवं समाधान गीता प्रस्तुत करती है। इन प्रश्नों की मीमांसा के फलस्वरूप गीता में तत्त्व ज्ञान (ज्ञानयोग) और कर्मशास्त्र (कर्मयोग) तथा भक्तिशास्त्र (भक्तियोग) पर गहन विचार किया गया है। ये सब मानसिक घटनायें हैं, जिनका बाहरी समय प्रवाह से सम्बन्ध नहीं है। ये नीतिशास्त्र के अनुसार मूलभूत प्रश्न हैं. उनका अपना विचारक्रम है। ___ मानव चेतना के अन्तर्गत तीन शक्तियों का समावेश है- ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति एवं इच्छाशक्ति। इन्हीं के आधार पर प्रधानत: विविध नैतिक जिज्ञासा या समस्याओं का उद्भव होता है जिनका गीता समुचित रूप में समाधान मार्ग प्रस्तुत करती है।
1. समुचित ज्ञान की समस्या
मनुष्य अल्पज्ञ जीव होने के कारण स्वभावत: अच्छाई एवं बुराई का किञ्चित् ज्ञान तो रखता है परन्तु स्पष्ट एवं परिपूर्ण ज्ञान नहीं रखता है। सामान्य मनुष्य की तो बात ही क्या. विशेषज्ञ को भी पूर्णज्ञान या समुचित ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। अत: इस विषय के अधिकृत गुरुजनों से ही सच्चा एवं पूरा ज्ञान जाना जा सकता है। अत: गुरु से ज्ञान लेने की परम्परा भारत में आदिकाल से प्रचलित है। अच्छाई या बुराई को समुचित रूप में जानकर ही मनुष्य तदनुरूप कार्य कर सकता है अन्यथा उसकी स्थिति डाँवाडोल रहती है। अर्जुन की यही समस्या इन शब्दों के अपने गुरु श्रीकृष्ण के सम्मुख प्रस्तुत होती है
“न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।"
- गीता 2.6 “कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः। यच्छेय: स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे, शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।"
- गीता 2.7