Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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श्री कृष्ण का नैतिक चिन्तन एवं दर्शन / 73
हे कृष्ण मैं नहीं जानता हूँ कि लड़ना मेरे लिए श्रेयस्कर है अथवा नहीं लड़ना। मैं तो यह भी नहीं जानता हूँ कि मेरी विजय श्रेयस्कर है या मेरे शत्रुओं की...। अत: जो श्रेयस्कर मार्ग है वह कृष्ण जी मुझे बताइये। तब श्रीकृष्ण ने गुरु की तरह इस समस्या का विशद विवेचन किया कि कर्म क्या है? अकर्म क्या है? तथा विकर्म क्या है। इसको तो विद्वान् भी पूर्णत: नहीं जानते हैं। वस्तुत: कर्म को जानकर ही उससे मुक्त हो सकते हैं
"किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।। कर्मणो ह्यपि बोद्धव्य बोद्धव्यं च विकर्मणः।। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।"
- गीता 4.16-17 अत: मानव मात्र के लिए समुचित ज्ञान ही प्रथम समस्या है जिसका बिना तत्त्वज्ञान के समाधान नहीं हो सकता है। वैदिक दर्शन इस विषय में हमारी सहायता करता है। नित्य एवं अनित्य का विवेचक रूपी विवेक ही इसका उपाय दिखता है।
2. उचित कर्तव्य पालन की समस्या
यह मानव के कर्म या व्यवहार, आचरण से जुड़ी है। मनुष्य कर्म के उचित एवं अनुचित का ज्ञान करने पर भी उचित कर्तव्य के पालन में प्रवृत्त नहीं होता है तथा न अनुचित कर्म के आचरण से निवृत्त होता है। जैसा कि महाभारत के इस पद्य में स्पष्टत: कहा है कि
“जानामि धर्मं न च मे प्रवृतिः, जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः।" यद्यपि कर्म के औचित्य एवं अनौचित्य से अभिज्ञ होकर मनुष्य: प्राय: इस विषय में मोहित हो जाता है। इस कर्तव्यपालन की समस्या से ग्रस्त अर्जुन पूछ ही बैठते हैं
“अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः। अन्निछन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।"
- गीता 3.36 हे कृष्ण! किस प्रधानकारण से प्रयुक्त हुआ यह पुरुष न चाहते हुए भी राजा के प्रयुक्त सेवक की तरह बलपूर्वक लगाया हुआ पाप कर्म का आचरण करता है। अत: कर्त्तव्य पालन की यह दूसरी नैतिक समस्या मनुष्यों के सामने सामान्यत: उपस्थित होती है जिसका कारण एवं निदान प्रत्येक मनुष्य को जानना चाहिये।
3. उचित ज्ञान एवं कर्तव्यपालन के लक्ष्य चरमपुरुषार्थ की समस्या
कोई व्यक्ति एक बार अच्छाई एवं बुराई को समुचित रूप में जान लेता है तो फिर उचित कर्त्तव्य का पालन भी करता है तब उसकी जिज्ञासा होती है इसका लक्ष्य, या फल क्या है? क्या वह मुझे प्राप्त हो गया है? यदि उसे लक्ष्य नहीं मिला तो सब कुछ बेकार है। वस्तुत: जब तक नि:श्रेयस की प्राप्ति नहीं होती है तब तक पूर्णता नहीं है। नैतिक ज्ञान एवं नैतिक आचरण से नि:श्रेयस अनिवार्यत: जुड़ा हुआ है। इस साधन से यह उत्तम गति नहीं मिलती तब क्या होगा? निःश्रेयस का अर्थ सन्तोष श्रद्धा, शान्ति आदि पूर्ण गुणों की प्राप्ति है। अन्यथा मनुष्य फिर भटकन में पड़ जाता है। अत: अर्जुन इस प्रश्न को भी उठाते हैं