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जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहि ।
सब अँधियारा मिट गया, जब दीपक दीख्या मांहि ।। Kabir Granthāvali, p. 51. 30. क्या जप क्या तप क्या संजम क्या व्रत क्या अस्नान । जब लगि जुगत न जानिये भाव भक्ति भगवान ।।
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मूँड मुडाय हरि मिलै सब कोई लेइ मुडाय । बार-बार के मुँड भेंड न बैकुंठ जाय ।।
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पूजा सेवा नेम व्रत गुडियन का सा खेल । जब लग पिउ परसे नहीं तब लग संसय मेल ।।
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माला फेरत दिन गया, गया न मनका फेर ।
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पाथर पूजै हरि मिलै तो मैं पूजूँ पहार ।
The Secular Religiousity in Kabir's Philosophy of Bhakti / 69
पंडित होय के आसान मारे लम्बी माला जपता है
31. कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लेइ बनाए ।
ता चढ मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ।।
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मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे क्या साहिब तेरा बहरा है
चिउँटी के पग नेवर बाजे सो भी साहिब सुनता है ।।
32. See, Sinha, A.K. 'Dharmik Religiousity of Ancient Indian Society and Culture in his Readings in Early Indian Socio-Cultural History. Delhi, 2000., also, Mohammand, Nazir, 'Bhartiya Dharma-Nirpekśatā Ke AdharaPurusha: Kabir' in Kabir Ek Punarmulyankan (ed) Baldev Vansi, pp. 202 ff.
33. Kabir Granthāvali, (ed) P. Singh, pp. 29,30 34. जो कासी तन तजै कबीरा रामहि कौन निहोरा,
'जस कासी तस उसर भगहर
35. Bhandarkar, R.G., op. cit, p. 101.