Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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आचार्य गोविन्दचन्द्र पाण्डे का सौन्दर्य विमर्श / 25
भट्टनायक के मत के पूर्व पक्ष को (लोल्लट तथा शंकुक के उत्पत्ति एवं अनुमिति के खण्डन को) स्वीकार किया परन्तु रस के भोगीकरण के स्थान पर ध्वनि द्वारा रसानुभूति सिद्ध की। आचार्य पाण्डे ने भट्टनायक के मत की बहुत ही स्पष्ट विवेचना करके अभिनवगुप्त के मत के महत्त्व को रेखांकित किया है। उन्होंने यह भी प्रतिपादित किया है कि भट्टनायक के सिद्धान्त की दो प्रतिपत्तियाँ ही सम्यक् हैं, अभिधा एवं साधारण्य या भाव्यमानता परन्तु तीसरी प्रतिपत्ति मात्र पुनरुक्ति है। भोगीकरण के स्थान पर ध्वनि द्वारा ही रस का व्यंग्यत्व तर्क संगत प्रतीत होता है। इसके लिए अभिनव गुप्त की व्याख्या ही एकमात्र सफल निरूपण है तथा रस की अलौकिकता, निस्संविद्विश्रान्ति तथा परम तत्त्व को प्रतिपादित करने में सक्षम है। आचार्य पाण्डे के अनुसार
"तात्पर्यार्थ की भाँति वाक्य से रस अवगत होता है, आत्मा की भाँति, अन्तर्मुख चित्त से रस अपरोक्षीकृत होता है, इस प्रकार आचार्य (भट्टनायक) का रसतत्त्व के रहस्य का ज्ञान उजागर होता है। तथापि वह शब्द की कौन सी शक्ति है जिससे रस संवेद्य होता है, इसे ध्वनि विरोधी आचार्य
ने स्पष्ट प्रकाशित नहीं किया है।" (सौन्दर्यदर्शनविमर्श, पृष्ठ 123) अभिनवगुप्त ने रसानुभूति की प्रक्रिया को भट्टनायक द्वारा की गई अवशिष्ट अंश की व्याख्या के अवशिष्ट अंशों के आधार पर ही पूरा किया है। फिर भट्टनायक की व्याख्या का महत्त्व इसलिए है कि उन्होंने रसास्वाद के तात्त्विक स्वरूप की विवेचना करते हुए इसे चित्त की आत्मा में विश्रान्ति का नाम दिया। विश्रान्ति में चित्त में सत्त्व गुण का उद्रेक होता है और रजस् तथा तमस् का शमन होता है परन्तु पूर्णतः अभाव नहीं होता। अतः चित्त की स्थिति को विशुद्ध आत्मविश्रान्ति से न्यूनतर माना है। ब्रह्मास्वाद के समान काव्यास्वाद को मानने का श्रेय भट्टनायक को ही है जो इनके बाद के सभी आचार्यों को भी स्वीकार्य है। इस आत्मविश्रान्ति रूप रस को अभिनवगुप्त ने ध्वनि द्वारा प्रकाशित किया है।
भट्टनायक के सिद्धान्त की दूसरी उपलब्धि थी; भावकत्व द्वारा उपलब्ध साधारणीकरण, जिसे अभिनव गुप्त ने प्रत्यभिज्ञा द्वारा समझाया है। अभिनव गुप्त ने स्वयं भी यह स्वीकार किया कि उन्होंने पूर्व आचार्यों के मत का खण्डन नहीं अपितु परिष्कार और परिवर्धन किया है। आचार्य पाण्डे ने नाट्योपदर्शित अन्य उदाहरणों द्वारा अभिनवगुप्त के सिद्धान्त का अनुमोदन एवं विश्लेषण करते हुए साधारणीकरण की सारगर्भित व्याख्या निम्न प्रकार से की है
"वर्ण्य विषय के विशेषणीभूत देश और काल का, स्वगत और व्यावहारिक देश-काल का तथा काव्यादि विषय के प्रमाता और सामाजिक दोनों के लोकसिद्ध याथात्म्य का स्थगन ही (साधारण्य)
है।" (सौन्दर्यदर्शनविमर्श, पृष्ठ 123) विभावादि का उसी देश-काल में परिमित रूप से साधारणीकरण नहीं होता अपितु अत्यन्त विस्तृत रूप में साधारणीकरण होता है। स्थगन से तात्पर्य है वर्ण्य विषय का देश, काल, प्रमाता आदि को नियामक हेतुओं के बंधन से अत्यन्त अलग कर देना। इस प्रकार की स्थिति में समस्त सामाजिकों को एक रूप प्रतीति होती है। समस्त सामाजिक व्यापक भावतत्त्व का साक्षात्कार करते हैं। इस दशा में आस्वादात्मक निर्विघ्न प्रतीति से ग्राह्य भाव ही रस है।
रसानुभूति की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए आचार्य पाण्डे ने कहा है कि काव्य तथा नाटक में सहृदय प्रेक्षक को सामान्य अर्थ तथा अभिनय में सादृश्य-मूलक अर्थ से अधिक की प्रतीति होती है। अधिक प्रतीति या अतिशय अर्थ तथा सामान्य अर्थ बोध में यह अन्तर है, कि यह प्रतीति कालादि विभाग से मुक्त साक्षात्कारात्मक होती है जिससे मानस में चित्र या बिम्ब सा अंकित हो जाता है। यहाँ अतिशय केवल शब्दों में नहीं होता अपितु चित्र, प्रतिमा
और संगीत में रूप, आकार, ध्वनि की योजना से उत्पन्न होता है। आचार्य पाण्डे ने अन्य कलाओं में भी व्यञ्जकत्व की विवेचना के साथ अन्य प्रमाणों से भी इसे सिद्ध किया है।