Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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/ Jijñāsā
क्रमशः विश्वनाथ महापात्र का साहित्यदर्पण तथा पण्डितराज जगन्नाथ के रसगंगाधर के नाम उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों में नाट्य रस के साथ काव्य रस की भी मीमांसा करते हुए अभिनवगुप्त के अभिव्यञ्जनावाद का अनुमोदन किया गया है। आधुनिक युग के आचार्यों में श्री रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद तथा नगेन्द्र ने हिन्दी भाषा में रसमीमांसा की पुनर्व्याख्या तथा सौन्दर्यानुभूति तथा रसानुभूति की अभिन्नता निरूपित की। आधुनिक व्याख्याकारों ने भाव को प्रत्ययबोध, अनुभूति और मनोवेग-युक्त-प्रवृत्ति के संश्लेषण के रूप में व्याख्यायित करते हुए मनोविज्ञान का समावेश भी किया है। बिम्ब-विधान, रस की विषयीनिष्ठ व्याख्या, सृजनपक्ष, ग्रहणपक्ष, आत्माभिव्यक्ति तथा रसानुभूति में विरोधी मनोवेगों का सामञ्जस्य आदि विषयों का भी समावेश किया। इस प्रकार कुछ विद्वानों ने तुलनात्मक सौन्दर्यशास्त्र का व्याख्यान प्रारम्भ किया, जिसमें कुमारस्वामी, निर्मला जैन आदि विद्वानों का योगदान प्रमुख है। रस चिन्तन के इस परिदृश्य में आचार्य पाण्डे का यह ग्रन्थ 17वीं शताब्दी के बाद से आधुनिक युग तक के विकास को जोड़ता हुआ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय ग्रन्थ सिद्ध होता है।
इस ग्रन्थ में आचार्य पाण्डे ने भारतीय तथा पाश्चात्य दार्शनिकों के मतों को समन्वित करते हुए सौन्दर्यशास्त्र के मूल विषयों के अन्तर्गत सौन्दर्य तत्त्व, रूप तथा रस का विमर्श प्रस्तुत किया है। सौन्दर्य का विवेचन करते हुए आचार्य ने सौन्दर्याधान के रूप में चित्र, मूर्ति, संगीत, आदि दृश्य-श्रव्य कलाओं तथा काव्य के साथ ही प्राकृतिक दृश्यों को भी गृहीत किया है। इस प्रकार की व्याख्या द्वारा आचार्य पाण्डे ने सौन्दर्य की सूक्ष्मतम अवधारणा के रूप में उदात्त के उदाहरणों- असीम तथा अनन्त, आकाश एवं समुद्र, चन्द्रोदय, ब्रह्माण्ड आदि का समावेश किया है, जो सौन्दर्यानुभव के मूल स्रोत हैं। उन्होंने सौन्दर्य बोध के दृश्य-श्रव्य, इन्द्रिय-गोचर, मानवनिर्मित तथा निसर्ग रूपों को एक ही श्रेणी में रखकर इस पाश्चात्य अवधारणा का परिहार किया है, कि नैसर्गिक सौन्दर्य तथा कलाओं के सौन्दर्य में भेद है; यहाँ आचार्य पाण्डे वैदिक अवधारणा को ही पुनःस्थापित करते हैं, कि दोनों प्रकार का सौन्दर्य परस्पर अविरुद्ध है। आचार्य पाण्डे के अनुसार सौन्दर्य की रूप-अतिक्रामिणी व्याप्ति उदात्त तथा रूपसम्मित व्याप्ति सौन्दर्य है। उन्होंने सौन्दर्यशास्त्र की नवीन परिभाषाओं, अर्थों तथा अध्ययन के क्षेत्र का व्याख्यान प्रारम्भ में ही करते हुए "ईस्थैटिक" का अनुवाद "अन्वीक्षा किया है, जिसका तात्पर्य है अक्ष अर्थात् इन्द्रिय ज्ञान का आलोचनात्मक अनुसंधान। यही परिभाषा नवीन सौन्दर्यशास्त्र के जनक जर्मन दार्शनिक बाउमगार्टन ने भी दी थी, जिसके अनुसार "ईस्थैटिक" इन्द्रिय प्रत्यक्षों के ज्ञान का विज्ञान है तथा इसका अस्तित्व एक स्वतन्त्र शास्त्र के रूप में ही होना उचित होगा, न कि दर्शनशास्त्र के एक विभाग के रूप में। आचार्य पाण्डे ने अपनी स्वतन्त्र एवं विवेकपूर्ण मेधा से बाउभगार्टन (वृक्षोद्यान) की परिभाषा को मान्यता देते हुए सौन्दर्यशास्त्र को एक स्वतन्त्र शास्त्र तथा दर्शन सिद्ध कर अपनी प्रखर नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के उत्कर्ष का परिचय दिया है। सौन्दर्यदर्शनविमर्श के इस समग्र विवेचन की भाषा सार्थक, सौष्ठवपूर्ण एवं शास्त्रीय है जिसमें पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष की अवधारणा आचार्य अभिनवगुप्त की शैली का स्मरण कराती है।
पाश्चात्य परम्परा में भी "ईस्थैटिक" नामक कोई स्वतन्त्र शास्त्र प्राचीन साहित्य में प्राप्त नहीं होता। यूनानी दार्शनिकों ने दार्शनिक चिन्तन के अन्तर्गत ही सौन्दर्य तत्त्व का चिन्तन किया था। प्लातोन ने तत्त्वमीमांसा के आधार पर सौन्दर्य तत्त्व को प्रत्यय के रूप में व्याख्यायित किया, तो अरस्तू ने प्लातोन की परिभाषा को शुद्ध ज्ञान के क्षेत्र से निकाल कर रचनात्मक शास्त्र के क्षेत्र में स्थापित किया। शास्त्रीय अध्ययन की आगमनात्मक तथा निगमनात्मक विधियों का प्रयोग करते हुए पाश्चात्य दार्शनिकों ने सौन्दर्य के वस्तुगत तथा आत्मगत गुणों का अध्ययन निगमन तथा अन्तदर्शन की विधियों द्वारा करते हुए इसे सामाजिक विज्ञान के अन्तर्गत स्थापित करने के प्रयास भी किये। यद्यपि सौन्दर्य के आत्मगत गुणों का विवेचन करने के लिए विज्ञान से अधिक दर्शन का ही आश्रय लिया गया क्योंकि आधुनिक युग में विकसित कलाओं में रूप की अतिशयता की व्याख्या सौन्दर्य की सूक्ष्म