Book Title: Jignasa Journal Of History Of Ideas And Culture Part 01
Author(s): Vibha Upadhyaya and Others
Publisher: University of Rajasthan
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विचार-यात्रा / xxv
था। भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् के चैतन्यानुसन्धान प्रकोष्ठ के उद्घाटन के अवसर पर उद्घाटन भाषण के रूप में मैंने चैतन्य और संस्कृति विषय पर व्याख्यान दिया। चैतन्य और संस्कृति के विषय में जिस धारणा का सूत्रपात Meaning and Process of Culture में हुआ था और जिसका आगे विस्तार गोपीनाथ भट्टाचार्य स्मृति व्याख्यान के रूप में जादवपुर विश्वविद्यालय के तत्त्वाधान में संस्कृति और संस्कृतियाँ शीर्षक से किया गया था, उसी की यह तीसरी कड़ी कही जा सकती है।
गाहासत्तसई का हिन्दी दोहों में अनुवाद मैं बहुत दिनों से कर रहा था। यह महिलाएँ शीर्षक से प्रकाशित हो गयी है। इसको पूरा करने में जया की ही प्रेरणा रही है। हंसिका और जया की तरह यह भी यथार्थत: सुधा को प्रथम पाठक और आलोचक के रूप में समर्पित है। मेरी यह धारणा बनी है कि इन गाथाओं का वास्तविक अर्थ बाद के अनेक टीकाकारों के द्वारा अनावश्यक रूप से शृंगार के सन्दर्भ में किया गया है। वस्तुत: गाथाएं टीकाकारों के मध्यकालीन समाज की न होकर प्राचीन सातवाहन युग की हैं। उन्हें समझने के लिए एक ओर प्रेम की पुरानी धारणाएँ याद रखना आवश्यक है तो दूसरी ओर यह बात कि कविता का दोहरा सन्दर्भ होता है- अंतरंग और बहिरंग। इन प्रश्नों पर विस्तृत व्याख्या भी इस पुनस्सर्जना के साथ जुड़ी हुई है।
इन्हीं वर्षों में अनेक दार्शनिक विषयों पर मैंने लेख प्रकाशित किये, जिनमें कुछ विदेश में प्रकाशित हुए जैसे : काल की बौन्द्र परम्परा में अवधारणा अथवा कारणता की बौन्द्र अवधारणा अथवा शून्यता की अवधारणा अथवा पुनर्जन्म अथवा धर्मतत्त्व अथवा बुद्ध के उपदेश और साधना इत्यादि विषयों पर।
भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् के नेशनल लेक्चरर के रूप में एवं महामहोपाध्याय बलदेव उपाध्याय की स्मृति में आयोजकों की प्रेरणा से अप्रैल 2002 में मैंने सारनाथ में दर्शन विमर्श शीर्षक से चार व्याख्यान दिये जो अभी प्रकाशनाधीन हैं। नवम्बर 2002 में मैंने भारतीय कला-इतिहास परिषद् के वार्षिक अधिवेशन में अध्यक्ष पद से कला के स्वरूप पर व्याख्यान दिये। अक्टूबर 2002 में मुझे पंजाब विश्वविद्यालय में श्री अरविन्द पीठ पर प्रोफेसर नियुक्त किया गया, यहाँ पर मैंने 5 व्याख्यान दिये जो अभी प्रकाशनाधीन हैं। दिसम्बर 2002 में साहित्य अकादमी की 'महत्तर सदस्यता' मुझे प्रदान की गयी। फरवरी 2004 में साहित्य अकादमी के संवत्सर व्याख्यान के रूप में साहित्य और चेतना पर व्याख्यान दिया, जो अब प्रकाशित है। इस बीच मुझे नवनालन्दा महाविहार, नालन्दा, केन्द्रीय उच्च तिब्बती संस्थान, सारनाथ, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद ने विभिन्न दीक्षान्त समारोहों में अपने सर्वोच्च सम्मान डी. लिट् से सम्मानित किया। इधर मैं ऋग्वेद का हिन्दी अनुवाद करने में लगा हूँ और अपने पूर्व चिन्तित प्रकाशित विचारों को संजोने-संवारने में।
अपनी दीर्घ और विविध विचार-यात्रा पर दृष्टिपात करते हुए यह आंकन का मेरा मन करता है कि मैंने क्या खोजा क्या पाया? पहले तो यह निर्विवाद प्रतीत होता है कि निजी विचार-यात्रा को मानव जाति की विचार यात्रा से अलग नहीं रखा जा सकता। प्राचीनों के अनुसार शास्त्र सम्प्रदाय अथवा परम्परा के द्वारा प्राप्त होते हैं। आधुनिक दृष्टि से विद्यायें इतिहास क्रम में विकसित होती हैं। कितना भी प्रतिभाशाली व्यक्ति हो अथवा कितना भी तथ्यमुक्त विषय हो परम्परागत शिक्षा के बिना उपकी उपलब्धि सीमित हो जाती है। रामानुजम् जैसे गणितज्ञ को भी विधिवत् शिक्षा की आवश्यकता प्रतीत हुई। चन्द्रशेखर सामन्त ने भी पुराने ताड़पत्रों का अध्ययन किया। कबीर और मंगतराम ने औपचारिक शिक्षा अधिक नहीं पायी किन्तु उनकी वाणी में यह स्पष्ट है कि संत और सूफी परम्परा से उनका गहरा परिचय था। ज्ञान का स्मृति से भेद करते हुए उसे अपूर्व अथवा पहले अनधिगत वस्तु माना जाता है। स्मृति और ज्ञान का यह भेद वस्तुत: उनका स्वरूपत: विवेक करता है किन्तु वे दोनों वस्तुत: एक दूसरे के बिना प्रतिष्ठित नहीं हो सकते, स्मृति ज्ञान से जन्मती ही है। ज्ञान शाब्दिक विकल्पन के बिना विचारणीय अथवा संप्रेषणीय रूप नहीं प्राप्त करता और शब्दविकल्प स्मृति के बिना सम्भव नहीं। सर्वथा