Book Title: Jainendra Mahavrutti
Author(s): Devnandi Maharaj, Abhaynandi Maharaj, Shambhunath Tripathi, Mahadev Chaturvedi
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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जैनेन्द्र-व्याकरणम् महावृत्ति ३।२। ५५ मैं भट्ट अकलंक [जिनका काल ८००विक्रम माना जाता है] के तत्वार्थवार्तिक का उल्लेख है। इससे यह वृत्ति उसके बाद की है, यह निश्चित है। हमने अपने सं० व्या० शास्त्रका इतिहास ग्रन्थमें अभयनन्दीका काल विक्रम संवत् १०००-१०५० के मध्य में लिखा है पृष्ठ ४२६] । अभी इस विषयमें अनुसंधान की आवश्यकता है। .
___अभयनन्दीकी महावृत्ति-जैनेन्द्र व्याकरण के वाङ्मयमें महावृत्तिका वही गौरवपूर्ण स्थान है जो पाणिनीय व्याकरणमैं काशिका का है। यह महावृत्ति काशिकासे भी अधिक विस्तृत है। इसका ग्रन्थ परिमाण १२ सहस्र श्लोक है । ग्रन्थकारने अपनी वृत्तिके सम्बन्धमें पूर्वनिर्दिष्ट श्लोकमैं जो लिखा है वह पूर्णतया सत्य है, उसमें यत्किंचित् अतिशयोक्ति नहीं है।
अभयनन्दीका पाण्डित्य--निश्चय ही अभयनन्दी व्याकरण शास्त्रमें परम निपुण थे। उनका व्याकरण विषयक-ज्ञान केवल जैनेन्द्र तक सीमित नहीं था, अपितु पाणिनीय व्याकरणमैं भी उनकी अप्रत्याहत गति थी। यह इस वृत्तिके सूक्ष्म अध्ययनसे पदे-पदे स्पष्ट होता है। महावृत्तिमें कई स्थल उनके व्याकरण विषयक अभूतपूर्व पाण्डित्यका निदर्शन कराते हैं। यथा श२।९६ सूत्रकी व्याख्यामें “प्रविनय्य" प्रयोगकी सिद्धिके सम्बन्धमैं जो विचार किया है, वह हमें अन्यत्र उपलब्ध नहीं हुआ।
महावृत्तिके उपजीव्य ग्रन्थ- यद्यपि अभयनन्दीने अपनी महावृत्तिकी रचनामें निस्सन्देह जैनेन्द्र न्यास, प्राचीन लघु वृत्तियाँ, पातञ्जल महाभाष्य आदि सभी ग्रन्थोंसे सहायता ली है, तथापि सूत्र व्याख्या शैली और वाक्य विन्यासमै काशिकावृत्तिका प्रभाव अधिक प्रतीत होता है।
पतञ्जलिके पदचिह्नोंपर-[क] पतञ्जलिने जिस प्रकार पाणिनि और कात्यायमके प्रति सम्मानकी भावना रखते हुए उनके सूत्र तथा चार्तिककी सूक्ष्म विवेचना करते समय पाणिनि और कात्यायनके गौरवसे प्रभावित हुए बिना अपना निर्णय प्रकट किया है, उसी प्रकार अभयनन्दी मुनिने भी अनेक स्थलों पर जैनेन्द्र वार्तिकोंका निष्प्रयोजनत्व दर्शाया है। यथा-पृष्ठ १५ पर "उगित् कार्यम्' तथा पृष्ठ २६ पर 'दाणश्च सा' वार्तिक का।
[ख] जैसे पतञ्जलिने पाणिनीय सूत्रोंसे साक्षात् असिद्ध प्रयोगोंका साधुत्व दर्शानेके लिए योगविभाग रूपी कौशल दिखाया है। उसी प्रकार अभयनन्दीने भी योगविभाग द्वारा अनेक पदोंका साधत्व दर्शानेका प्रयत्न बहुत स्थानोंपर किया है।
महावृत्तिकी एक महती विशेषता-महावृत्तिकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें पाणिनि पतञ्जलि चन्द्र तथा पूज्यपाद द्वारा असंगृहीत प्राचीन व्याकरण-नियमोंका यत्र तत्र संग्रह उपलब्ध होता है। यथा [शरा
'भूवादीनां वकारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते। इको यरिभर्व्यवधानमनेकेषामिति संग्रहः।"
अर्थात्- 'भूवादयो धुः' [११२।१] सूत्रमै 'भू+श्रादयो' के मध्यमें वकारका निर्देश ब्याकरणका लक्षण बतलानेके लिए रखा गया है। अनेक आचार्योंके मतमें 'इक् से परे यणका व्यवधानं होता है', इस लक्षणका संग्रह वकारसे दर्शाया है।
१. कलकत्ताके श्री पं० क्षितीशचन्द्र जी चट्टोपाध्यायने 'टेक्निकल टर्स आफ संस्कृत ग्रामर' [पृष्ट ७१] में इस कारिका तथा महावृत्तिमें आगे व्याख्यात दो चरणोंका पाठ इस प्रकार उद्धृत किया है-"भूवादीनां वकारोऽयं लक्षणार्थः प्रयुज्यते । व्यवधानमिको यएिभर्वायुवम्बरयोरिव ॥ भूवो वार्थ वदन्तीति वदेरौणादिके इजि । भूवादय इति ज्ञेया भूवोऽर्था वादयोऽथवा ।"
२. इस सन्धि तथा इससे पदसिद्धि-प्रक्रियापर पड़नेवाले प्रभावके लिए हमारा सं० व्या० शा. का इतिहास, पृष्ठ २१-२४ विशेष रूपसे देखना चाहिए।
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