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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
एक भाव था । वह मानों मित्र की भाँति हमें गोद में ले लेना चाहता था ।
दस बज गये, ग्यारह बज गये। मैंने कहा, "माँ सोचो। चुन्नू, अरे सोता क्यों नहीं ?"
चुन्नू अपनी खाट पर बैठा था । वह सो नहीं रहा था । अँधेरे में एक ओर धीमी लौ से जलती लालटेन रक्खी थी । वह भरसक दूर थी। इस अँधेरे में चुन्नू क्या देख रहा था । चौदह बरस की उम्र, नवें में पढ़ता है। क्या वह सोच रहा था कि उसके बाप का क्या हुआ। लेकिन दुनिया में कौन बतायेगा कि उसके बाप का क्या हुआ ?
मैंने जोर से कहा, "चुन्नू क्या बैठे हो ! सोते क्यों नहीं ?” चुन्नू ने मेरी तरफ देखा, जैसे सहमा हो, और चुपचाप खाट पर लेट रहा ।
मैंने कहा, माँ ने कहा, "सो जाऊँगी, बेटा ।"
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मैंने खाट पर जाकर अपने हाथों से लेकर उन्हें लिटा दिया । गिनती की हड्डी थीं । बोझ नहीं के बराबर था। फिर भी साहस बाँध जिये जाती थीं । चुन्नू के बाप की बीमारी में इन्होंने कुछ नहीं बचाया । धन बहाया और तन भी बहा दिया । इसमें ऐसी हो गयीं। बीमारी ने भी एक बरस खींच लिया। मैंने कहा, "माँ, अब सोओ ।"
"और माँ, तुम क्यों बैठी हो ? सो जाओ ।"
माँ ने कहा, "सोने जाती हूँ । पर पराये दुख में तुम क्यों दुख पाते हो। भैया जाओ, अब तुम आराम करो ।”
मेरा मन भी आया । मैंने जान लिया कि मैं पराया नहीं हूँ, तभी मेरे दुख का यहाँ इतना खयाल है। मैंने कहा, "माँ, यह तुम्हारे