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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
मैंने पास पहुँचकर कहा, "माँ, हम किस दिन के लिए हैं । और बालक छोटे हैं, उनके लिए अब तुम्हीं तो हो ।”
ने इस बात को सुना । सुनकर क्या समझा ? वही फटी आँखों से देखती रहीं। फिर हठात् स्वस्थ होकर कहा, “हाँ. चलो। चुन्नू बेटा, इधर आ । ऐसा क्यों हो रहा है ! में अभागिन तो अभी । आ मेरे बेटे !"
चुन्नू चौदह बरस का था । मुँह लटकाये सब की आँखों को बचाना चाह रहा था । वह अकेला था और इधर-उधर घूम रहा था। उसे जाने कैसा लग रहा होगा। नाते-रिश्तेदारों से दूर-दूर रह रहा था । माँ जब कपार पर दोहत्थड़ मार कर रो रही थीं तब इस चुन्नू ने उन्हें अपने गले लगा कर समझाया था । अब माँ स्वस्थ हुईं तो जैसे मुश्किल से उसके आँसू रोके रुक रहे थे ।
" बेटे, यहाँ आ । बाप नहीं, पर माँ तो है । यहाँ आ बेटे !”
चुन्नू बरामदे की टीन के नीचे खड़ा परली तरफ सूने में देख रहा था । वह काफी देर से खड़ा था। अब उसने दोनों हाथों में मुँह ढका और बैठकर बिसूरने लगा ।
यह देख माँ झपटी आयीं और उसे अंक में भर कर बोलीं, "क्यों रोता है बेटे, तेरे बाप तो सरनाम होकर गये हैं । सब के मुँह पर उनका नाम है । ऐसे भाग्य पर क्या रोया जाता है, बेटे ?"
चुन्नू माँ के कन्धे से लग कर अब फफक उठा । माँ भी रो आयीं । श्राँसू गिराती जाती थीं और समझाती जाती थीं : "बेटा तुझे क्या फिकर है। किसका बेटा है यह तो याद कर । उन्होंने कैसी मुसीबतें सहीं, पर क्या मन कभी कच्चा किया । उनका बेटा होकर तू मन कच्चा करता है। मैं हूँ, तब तुझे कोई फिकर नहीं ।