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निवेदन.
संवत् १६७९ के आश्विन शुक्ला पूर्णिमा और बुधवार के दिन विजययोगमें " शासन शिरोमणि श्रीपद्मवल्लभजी गणिकी सहायसें खरतरगच्छाधिपति श्रीमत् उपाध्यायजी महाराज श्री सुरचन्द्र विबुधने यह " जैन तत्त्व सार " नामका प्रन्थ परिपूर्ण कीया है । जिसको जैनतत्त्वसार- सारांश नाम से हम प्रगट कर रहे हैं ।
प्रथम इस ग्रन्थका गुजराती भाषान्तर " बडौदा निवासी प्रसिद्ध विद्वद्रत्न वैद्यराज मगनलाल चुनीलालजीने कीया है । सद्गत वैद्यराज मगनलालभाई जैन शाखमें निपुण,, बुद्धिशाली और धर्मनिष्ठ थे । और गीर्वाण गिराके उपासक और अच्छे अभ्यासी थे ।
गुजराती भाषांतर युक्त " जैन तत्त्वसार " श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी महाराजश्री के प्रशस्य विद्वान् शिष्यरत्न प्रत्रर्त्तक श्री कान्तिविजयजी महाराजने भावनगर आत्मानन्द जैन सभा द्वारा प्रगट कीया था ।
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उपरोक्त ग्रन्थ के वाचन और परिशीलन से हरकोई शख्स कहेगा की आधुनिक समय में ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता है । एक जमाना था कि जब भारतवर्ष सारे संसारका गुरु १ ( खरतरगच्छ की वृहत् शाखा में ) जसमेर भंडार - संस्थापक ' श्री जिनभद्रसूरि महाराज तथा मेरुसुंदर पाठक, हर्षप्रिय पाटक, चारित्रउदय वाचक-वीर कलश ।
२ यह मूल ग्रंथ के इक्वीस अधिकार है और पृथक पृथक अधिकार में प्रश्नोत्तर सहित अलग अलग विषय है और इकवीस में अधिकार में ग्रंथकारने अपनी गुरुपरंपरा बतलाइ है सो इस पुस्तक के अन्त में दी गई है।