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निश्चय से है; परन्तु नदीया में समुद्र की भजना अंश है यानि की वेल का पानी जिस नदी में जाता है उस द्रष्टि से - नदी में समुद्र एकदेश से संभवित है ।
समुद्र
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इस तरह समुद्रोपमा से अन्यान्य दर्शन भी अंशतः जिन- वर के ही अंग माने गये हैं । संक्षेप में कहा जाय तो जैनदर्शन के सिवाय जितने अन्य दर्शन हैं वे सब अंशतः सत्य का प्रतिपादन करनेवाले हैं जब जैनदर्शन संपूर्ण सत्य का प्रकाश करता है । यह स्तवन, जैनदर्शन की संपूर्णता और सत्यता दर्शाने के साथ साथ समस्त दर्शनानुयायीयों के साथ सहकार साधने की भी भावना प्रेरता है ।
सांख्य, वेदान्त आदि दर्शनों की क्या २ मान्यता है और वे सब दर्शनें जिनदर्शन में किस तरह अंतर्भूत होते हैं ? ईस बात को जानने के अभिलाषुकों को चाहिये कि वे श्रीमद् आनंदघनजी महाराजकृत श्री नेमीश्वरप्रभु का स्तवन खूब मनन- पूर्वक साद्यंत पढे और विचारे ।
'जैनों का स्याद्वाद सिद्धान्त :
जैनदर्शन के अनेक सिद्धान्त हैं जिन में स्याद्वाद भी उन “का एक परम सिद्धान्त है । स्याद्वाद का अपर नाम अनेकान्त--वाद भी है । भिन्न २ मताभिलाषीच के दृष्टिबिन्दु समजने में : अनेकान्तवाद जितनी सहाय करता है उतनी एकान्तवाद नहीं * कर सकता | स्याद्वाद को कोई ' संशय ' वाद न समझे । क्यों 'कि संशयवाद वो कहा जाता है कि कोई भी एक वस्तु का