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दर्शन अन्य दर्शनों से कितना अग्रगामी है वह इन निम्नं लिखित बातों से हम समज सकते हैं ।
यह जगत् संकल्प विकल्प की सृष्टि से पैदा होता है । उसके मूलरुप ' शब्द को ' कोई दर्शनवाला आकाश का गुण वतला कर " सत्यं ब्रह्म जगन्मिथ्या " अर्थात् ब्रह्म है वही सत्य है और जगत् मिथ्या है ऐसा मानते हैं । और इस जगत को नामरुपमय मान कर उस को स्वप्नतुल्य-भ्रमतुल्य मान कर उस की उपेक्षा करते हैं । और उस को कोई सत्य नहीं कहता वैसे उस को कोई असत्य भी नहीं कहता या सत्यासत्य भी नहीं कहता मगर " यह कुछ है " ऐसा कहते हैं । और ऐसा कह कर के सृष्टिकर्तृत्व का फंदा इश्वर के गले में डाल देते हैं | परन्तु वास्तविक में वैसा नहीं है । संसार त्याज्य है और आत्मा का परमात्मपद प्राप्त करना यही अन्तिम ध्येय है ऐसा उस सूत्र का अर्थ करना योग्य है मगर इस से जगत के अस्तित्व का इन्कार करना यह भूल है । " पहले कुछ भी नहीं था, शून्य में से जगत् पैदा हुआ । ईश्वर ने उस को यह कहना मिथ्या है और अज्ञानता को बतानेवाला है । ईश्वरने अगर जगत को बनाया होगा तो वह किसी जगह तो अवश्य खडा रहा होगा ।
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ܪܕ
इस पर से सिद्ध होता है कि पहले जगत् तो था । वेदान्त के निपुण अभ्यासी स्वामी रामतीर्थ कहते हैं कि जो ऐसा कहते हैं कि ईश्वरने जगत् बनाया वे घोडे के पहिले गाडी