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करती है । श्रीफलादि के मूल में जल डाला जाता है ।
और फल को मिलता है। इतना ही नहीं प्रायः प्रत्येक चीज स्वयं जल को लेकर आई होती है। इस तरह जीव
भी कर्म को ग्रहण करता है। प्र-वस्तु स्वयं जल ग्रहण कर के आई होती है तो क्या . जल की शक्ति से वह आर्द्र नहीं होती ? उ-अगर जल की शक्ति से ही आर्द्र होती है तो मग
शीलीआ पत्थर भी आई होना चाहिए ।
सारांश-संक्षेप में यही लिखने का मतलब है कि जिस को जो चीज ग्रहण करने योग्य होती है, वह उस चीज को ग्रहण करता हैं । दृष्टान्त के तौर पर लोहचुम्बक वह सब को छोड कर लोहे को ही खिंचता है । इस लिए भवितव्यता के वश होकर जीव तद् तद् कर्मों को ग्रहण करता है। जैसे स्वप्नस्थ मनुष्य मन से अनेक क्रियाओं को करता है। उस समय उस की पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ कुछ क्रिया नहीं करती तत्र भी क्या आत्मा कर्म को नहीं ग्रहण करता ? - . . प्र-स्वप्न यह क्या भ्रम हैं ? उ-नहीं, वह भ्रम नहीं हैं। कभी स्वप्न का भी चडा फल
होता है। किसी उत्तम पुरुष को स्वप्न यथार्थ फल देवा
है । उसी तरह कर्म भी जीव को फल देता है । अ--जीव की उत्पचि काल से लेकर अवसान तक. आत्मा . .. गर्भ में क्या क्या क्रियाएँ करता है वह कहो ?..