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तो ब्रह्म स्वयं उन को अपने पास ले जावंगा | अगर ब्रह्मप्ताप्ति के लिए निरागता, निःस्पृहता, निर्दोषता, निष्क्रियता, जितेन्द्रियता करने योग्य हो और ब्रह्म की उसी में ही प्रीति हो तो ब्रह्म का निष्क्रियत्व सिद्ध होता है ।
अगर ब्रह्मको निष्क्रिय और सक्रिय कहो तो उस में कतृव आवेगा और कर्ता के अनेक स्वभाव होने से कदाचित् उस में अनित्यता भी जावेगी । और राग-द्वेष भी आ जायेंगे, सशरीरी भी होना पडेगा और ब्रह्म नित्य है ऐसी व्याप्ति भी नही होगी । क्यों कि नित्य वह ही हैं जो एकरूप हैं । दृष्टान्त आकाश का हमारे सामने ही है ।
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सृष्टि करने में और युगान्त में संहार करने में कर्ता को सक्रियता आती है और सृष्टि तथा संहार के अभाव में निष्क्रियता आती है । और जीव सुखी तथा दुःखी भी दिखते है इस से वह कर्ता राग-द्वेषी भी सिद्ध होता है । अगर यह तर्क किया जाय कि जैसा कृत्य वैसा सुखदुःख तो फिर कर्ता का क्या पराक्रम रहा ? इस लिए निश्चित होता है कि स्वकृत पुण्य पाप ही सुख - दुःख को देनेवाले हैं ।
प्र० क्या जीव ब्रह्मांश हैं ?
उ० नहीं, जीव ब्रह्मांश नहीं है अगर वह ब्रह्मांश हो तो ब्रह्मांश समान होने से सभी समान हो जावेंगे। मगर ऐसा कुछ नजर नहीं आता । और भी अगर जीव ब्रह्मांश होगा तो ब्रह्म स्वयं ही उस को विना परिश्रम ही अपने पास ले जावेगा ।