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( ९३ ) क्यों कीयी ? देखो ! जगत् जन्म, मरण, व्याधि, कषाय, काम, क्रोध और दुर्गति के भव से व्याकुल है । परस्पर द्रोह और विपक्ष से भरा हुआ है । व्याघ्र, हस्ति, सर्प, बिच्छु से परिपूर्ण है। पाराधि, मच्छिमार और व्याधसे त्रस्त है। चोरी, जारी से पीडित है । कस्तुरी, चामर, दांत और चर्म के वास्ते मृग, गौ, हस्ति और चित्ताओं का घातक है । दुर्जाति, दुर्योनि और दुष्ट कीटों से भरा है। विष्टा और दुर्गन्ध से भरे कलेवरों से अंकित है। दुष्कर्मो को निर्माण करनेवाले मैथुन से संचित है। सप्त धातु से निष्पन्न शरीरों से समाश्रित है। नास्तिकों के सहित और मुनीशों से नियित है। वर्णाश्रम के भिन्न भिन्न धर्म, पडदर्शन के प्राचार-विचार सम्बन्धि आडंबर से युक्त है। नाना प्रकारकी आकृत्तिवाले देवताओं की उस में पूजा होती है। पुण्य और पाप को निष्पन्न कर्म भोग को देनेवाले है। श्रीमन्त और निर्धन, आर्य और अनार्य भेदों से व्याप्त है । अगर परब्रह्म बनानेवाला है तो ऐसा क्यों बनाया ? सब कुछ विपरीत ही नजर आता है । परब्रह्म के स्वरूप को सर्वथा भिन्न है।
और भी अगर आगे बढो तो उसी बनानेवाले परब्रह्म को वैर रखनेवाले, उस का खंडन करनेवाले, उस को हसनेवाले भी कितनेक जीव होते हैं और कितनेक उस को चाहनेवाले भी हैं। अगर परब्रह्म बनानेवाला हो तो ऐसी सृष्टि क्यों बनाई ? ..
. और भी कार्य में उपादान कारण के गुण होने चाहिए वे __ भी नहीं नज़र आते ।
... संसार में अनित्य वस्तु नजर आती है । अगर सृजन के