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(१२८ ) : २० परिपूजनीय द्रव्य में (सेव्य के विषय में) ऐसा विचार ,
नहीं किया जाता। जो पूज्य होता है वह पूजा के पात्र होता है । दक्षिणावर्त ( शंखादि ), कामकुंभ चिंतामणी
और चित्रावल्ली आदि को इन्द्रियाँ नहीं होती किन्तु क्या फल को नहीं देती ? तो अजीव होने से स्पृहा रहित होते हुए भी स्वभाव से पूजक की इच्छा को संपूर्ण करती है वैसे ही परमात्मा की पूजित मूर्ति भी पुण्य प्राप्ति के लिए
अवश्य होती है । प्र. दक्षिणावर्त आदि पदार्थ अजीव होने पर भी विशिष्ट जाति
के दुर्लभ होते हैं इसी से उन का आराधन इष्टप्राप्ति के . लिए. हो सकता है किन्तु प्रतिमा के विषय में वैसा नहीं
है। वे तो सुलभ पाषाण आदि की बनाई जाती है तो
फिर कैसे फल को दे सकेगी? १० जिस चीज में स्वभाव से ही गुणों का प्रकाश होता है,
उसी से भी पंच मान्य या स्थापित चीज विशेष गुणाढ्य (गुणवाली ) गिनी जाती है जैसे किसी एक राजपुत्र को जिस में वीर्यादि गुणों का आविर्भाव हो उस को त्याग कर के (छोड करके) किसी दुर्बल वंश में समुत्पन्न पुरुष को उस के पुण्य के परिवल से कोई प्रामाणिक पंच राजा स्थापन करता है तब वह दुर्लभ भी वह सवल राजवंशीय
पर भी शासन चलाता है । और कदाचित् वह राजवंशी - उस का अपमान करता है तो नंदराज की तरह शिक्षा : को पात्र होता है।