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चोर की तरह एक पुरुष से उपार्जित अति उग्र पुण्य और पाप अनेक जीवों के भोग के लिए भी होता है। जैसे राजा की सेवा करनेवाला सपरिवार सुखी होता है
और अपराध करनेवाला सपरिवार दुःखी होता है । इस तरह परमेश्वर की पूजादि का पुण्य सर्व प्रकार के स्वार्थों को साधनेवाला है इसी लिए प्रत्येक को इस का आदर
करना चाहिए। 'प्र. परमात्मा के नाम का जाप' करने में क्यों प्रवृत्ति
करनी चाहिए ?
'उ० महापुरूषोंने ऐसी योजना करने में भी बडा भारी विवेक
किया है । गृहस्थ वर्ग जो कि समर्थ है वे द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की पूजा के अधिकारी हैं, किन्तु महान् योगीवर्ग जो कि द्रव्य परिग्रह के विना ही संसार में रहते हैं उन के लिए परमात्मा का नाम स्मरणा ही सब कुछ है और इसी से ही उन के सर्व स्वार्थ सिद्ध होते हैं । जैसे विषवाले जीवों के काटने से मूच्छित प्राणियों का विष अन्यों से किये हुए गारुड, हंस-जांगुली मंत्र के जाप से नष्ट होता है वैसे हि तत्त्व से अनभिज्ञ जनों के, पाप प्रभु के पुण्य स्मरण से नष्ट होते हैं।
अन्य एक वार्ता भी लोक में प्रसिद्ध है कि-'हुमाय' नामक पक्षी जो कि अस्थियों को खाता है वह सदा स्व