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समय तक का न हो । और नित्यं प्रति वर्धमान वह वैर उस से भी अनन्त काल तक क्यों न चले । सारांश में निगोद के जीवों का वैर दुष्कर्म और उस को भोगने का काल अनन्त है । जिस तरह अति संकीर्ण पिंजरस्थ पक्षीगण और जाल आदि में फसें हुए मत्स्य पारस्परिक पीडा - दु:ख से द्वेषयुक्त होने पर अति दुःख के भाजन होते हैं ।
और भी शास्त्रनिपुण कहते हैं कि - चौरादि को बद्ध होता हुआ देखने से - कौतुक मात्र होने पर भी - बिना द्वेष वे दृष्टा सामुदायिक कर्म को उपार्जित करते हैं जो कि अनेक प्रकार से भोग में आता है । इस प्रकार के कर्मों का विपाक जब ध्यति दुःखदायी होता है तब निगोद के जीवों का परिपाक अनन्तकाल व्यतित होने पर भी संपूर्ण न हो तो क्या आश्चर्य !
प्र० निगोद के जीवों को मन नहीं है तथापि वे तंदुल मत्स्य की तरह जिस के परिपाक को अनन्तकाल लगता है वैसे कर्म क्यों उपार्जन करता है ?
० निगोद के जीवों को मन नहीं है तथापि अन्योन्य विबाधा से उन को दुष्कर्म तो अवश्य उत्पन्न होते हैं । विष भक्षण करने से फिर वह ज्ञानावस्था में अथवा अज्ञानावस्था में भक्षण किया हो मगर उस का परिणाम अवश्य होता है ।