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afa समभाव को धारण करता है तब ब्रह्मत्व को पाता है। इस लिए ईश्वर को जगतकर्ता कहना छोड के उस की स्तुति - सेवा करना ही योग्य और उचित है । जैसे कोई वीर अपने मालिक के आयुधों से शत्रुओं को पराजित कर के निज अंग को सुख पहुँचाने से कर्त्ता होता है वैसे ही ईश्वर का ध्यान करनेवाला ईश्वर के ध्यान से आत्मा को सुख पहुंचाने से कर्त्ता है और आत्माके अंधकार के अपहरण से संहर्ता कहलाता है । जैसे शुरवीर स्वामी के आयुधों से लडता है मगर स्वामी को कुछ भी क्रिया नहीं करने की होती वैसे ही भक्त ईश्वर-ध्यान से अपने इष्ट के वास्ते मता है मगर ईश्वर को कुछ भी करने का नहीं; और इससे ईश्वर की निष्क्रियता सिद्ध होती है । और शुरवीर स्वामी के आयुधों से जय पाता है तब जय का कारण स्वामी को मानता है वैसे ईश्वर के ध्यान से जब जीव मुक्ति पाता है तब उस का कारण ईश्वर को ही समजता है और उसी में सुखदि को मानता है ।