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रखते हैं। ऐसा कह कर स्वामीजी उन का उपहास करते हैं। जैनदर्शन तो मानता है कि-संसार अनादिकाल से ऐसा ही चला आया है । वह कदापि भव्यों से शून्य नही हुआ, न होगा। मोक्षमार्ग भी कभी बंध न हुआ और कदापि होगा भी नहीं । दोनों शाश्वत काल से विद्यमान हैं और रहेगा। अब इस से नतीजा क्या निकला वह देखें। यह जगत् नामरुपमय है ऐसा कहकर अन्य दार्शनिक चूप हो जाते है । परन्तु सर्वज्ञोंने तो नामरुप कैसे होता है ? जगत् की विचित्र-रचना किन किन कारणों से होती है। वह स्पष्ट रीतिसे बताया है और इसलिए कर्म फिल्सुफी के सेंकडों ग्रंथ पडे हैं, जिस में बिना सर्वज्ञ कोई चंचुपात भी नहीं कर सकता। परन्तु उस के अस्तित्व के वास्ते त्रिपदी का सिद्धान्त उन्होंने जगत् समक्ष रक्खा है। त्रिपदी का सिद्धान्त यह है कि-पैदा होना, नाश होना और स्थिर रहना। वे धर्मवाली वस्तु 'सत्' कही जाती है । ( उत्पादव्यय प्रौव्ययुक्तं सत् )। इस लिए जो जगत् को 'यह कुछ है ऐसा मानते हैं वे सत्यवादी नहीं हैं।
पंचभूत विपयक मान्यता भी उन की भूलों से भी नजर आती हैं। केवल कल्पना के अश्व दौडते नजर आते हैं । हम यहाँ उस का उल्लेख करते हैं। सृष्टि कर्तृत्ववाद की मान्यता
अव्याकृत माया में चेतन का परिस्फुरण होने से उस के तमःप्रधान माया द्रव्य ( जो वर्तमान सृष्टि रचना के पहिले