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आत्मश्रेय होगा। और इसी से ही गुप्तदान की महत्ता ज्यादा है। दया ही मनुष्य का उद्धार करनेवाली है । और वही मुक्ति __ का द्वार है । तुलसीदास तो पुकार पुकार के कहते हैं कि
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान । तुलसी दया न छंडीए, जब लग घट में प्राण ।।
सभी तप, जप, यम, नियम, प्रत्याहार, प्राणायाम, धारणा, ध्यान, समाधि और योगादि जो यौगिक प्रवृत्तियाँ हैं वे सभी स्वदया के लिए ही हैं । अर्थात् आत्मा की उन्नत स्थिति के वास्ते ही हैं। उस के पालन से आत्मा का कर्ममल नष्ट हो जाता है। और अन्त में आत्मा परमात्मा हो जाता है। जिसने स्वदया अर्थात् अपने आत्मा को पहचाना है वही यथार्थ अहिंसा का पालन कर सकता है। और वही सच्चा मुमुक्षु है. और वही विश्ववंद्य या महात्मा होने लायक है । आत्मा प्रथम कर्मबन्धों से जकड जाता है मगर अहिंसा से वह स्वतंत्र हो सकता है-आत्मा का ओजस् प्रगट होता है और उस की सामर्थ्य बढती है। मायिक, पौद्गलिक, · आसुरी और पाशविक बल ये सब अज्ञानता यानि हिंसामें से पैदा होता है। अहिंसा जितनी प्रवल होती है उतनी ही आसुरी आदि वृत्तियाँ कमजोर होती हैं और शात्मिकसामर्थ्य वृद्धि को पाता है। हिंसावल. वह पशुबल है । अहिंसावल वह सात्विक बल है। रावण बलिष्ठ.यानि आसुरी बलों का अधिष्ठाता था