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(१०) चोक्कस निर्णय नहीं किया जा सके । स्याद्वाद की व्याख्या, इस तरह की गई है:
'एकस्मिन् वस्तुनि सापेक्षरीत्या विरुद्ध नाना धर्म स्वीकारो हि स्याद्वाद'
अर्थः--एक ही पदार्थमें अपेक्षापूर्वक विरुद्ध नाना प्रकार के धर्मों का स्वीकार करना उनको स्याद्वाद-अनेकान्तवाद कहते हैं। प्रत्येक वस्तुमें अनंता धर्म रहे हुए हैं, वस्तुमात्र को जैसे २ दृष्टिबिंदु से देखा जाय वैसा ही उन का स्वरुप नजर आता है। उदाहरणार्थ रेत को लिजिये : यद्यपि वजन की अपेक्षा से रेतमें भारीपना विशेष है परन्तु लोखंड (लोहा) की । रज की अपेक्षा से विचार किया जाय तो उनसे रेत वास्तवमें हलकी ही मालुम पडेगी। इसी तरह विचार करनेसे स्पष्ट मालुम होता है कि मनुष्यमें भी अनेक धर्म रहे हुए हैं । एक ही मनुष्य पिता है, पुत्र है, भतीजा है, चाचा है, मामा है
और भानजा भी है। परस्पर विरुद्ध होने पर भी ये सब धर्म एक ही व्यक्ति में पाये जाते है । और वे तब ही सिद्ध होते है जब अपेक्षादृष्टि से उनका विचार किया जाय । मतलब कि पुत्र की अपेक्षा वह पिता हैं, पिता की अपेक्षा वह पुत्र है, चाचा की अपेक्षा भत्तिजा और भत्तिजा की अपेक्षा चाचा,. भानजा की अपेक्षा मामा और मामा की अपेक्षा भानजा, इस तरह परस्पर विरुद्ध धर्म भी अपेक्षा दृष्टि से देखने से ही एक ही व्यक्तिमें पाये जाते हैं, और स्याद्वाद सिद्धान्त ही वस्तुमात्र को