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के सं. १९८३ का चौमासा जेसलमेर किया. वहां पर जिनभद्रसूरि महाराज का पुराना ज्ञानभंडार में ताडपत्रकी पुस्तकोंका जीर्णोद्धार कराया. वाद में विहार कर के फलोदी पधारे, वहां से श्री संघ के साथ श्रोसीयाजी पधारे, वहांसे यात्रा कर के वापिस फलोदी पधारे. सं. १९८४ का चौमासा फलोदी में किया. बाद में वहां पर श्री संघ के आग्रह से उपधान कराया. बाद में विहार कर के वीकानेर पधारे, वहां पर श्री संघ के आग्रह से सं. १९८५ का चौमासा बीकानेर में किया, और उपधान बंगरे उच्छव धामधूम से हुआ. बाद में वहां पर शरीर में अशाता होने के कारण से श्री संघ के आग्रह से सं. १९८६-८७ का चौमासा बीकानेर में हुआ. वहां पर सुरतवाले सेठ फत्तेचंद प्रेमचंदभाई विनती के वास्ते आये, ओर महाराज साहब को विनंती कर के पालीताणे की तरफ विहार कराया. आप पार्श्वनाथ फलोदी तथा श्रावुजी वगेरे तीर्थों की यात्रा कर के पालीताणे पधारे, यहां पर सेठ प्रेमचंद कल्याणचंदभाई की धर्मशाला में पधारे, यहां पर आप दो वर्ष से विराजते है और दो वर्ष तक उपधान हुआ, और अच्छी तरह से और भी धर्मकार्य वगेरे होता है. आपने दीक्षा अंगीकार की तव से ४६ वर्ष तक विद्याभ्यास करते हुए परिपूर्ण तरह से स्वसिद्धान्त का और पर सिद्धान्तका ज्ञान प्राप्त किया, और गुरु महाराज के निर्वाण के वाद आपको अन्य दर्शन के शास्त्र अवधारण करनेके लिये पांच वर्ष तक रहना हुआ. बाद में बीकानेर में गुरु महाराज - का उपाश्रय तथा पुस्तकोंका ज्ञानभंडार खरतर गच्छ के संघ को सुप्रत करने के बाद क्रिया उद्धार किया. जब से आप के शिष्य प्राशिष्य समुदाय होने लगा तवही से आप परिश्रम पूर्वक स्वपर सिद्धान्तों को अभ्यास करवा के विद्वान् बनाये, ओर बहुत देशों में घुम कर के बहुत से भव्य जीवोंका उद्धार किया, और मारवाड़ में विचरते समय में विद्यार्थीयों के लिये पाठशाला खोलाइ, और कन्याओंके लीये कन्याशाला स्थापित कराई, और बालोतरा में आप विराजते थे उस समय में सेठ घेलाभाई कल्याणचंदभाई के तरफसे पालीताणे में श्री जिनदत्तसूरीश्वर ब्रह्मचर्याश्रम खोलने के वास्ते
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