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( ४ ) भवपाश से पराङ्मुख आत्मा को विषयादि नानाविध पाशों से जकड लेता है । परिणाम यह आता है कि इस भवसागरमें आत्मा को परिभ्रमण करना पड़ता है। देखियेः-पतंग, भ्रमर, मत्स्य, हस्ती और हरिन एक २ इन्द्रियजन्य दोष से दुःख पाते हैं तो जो प्राणी पांचों इन्द्रियों के विषयमें आसक्त रहते हैं वह कौनसा दुःख नहीं पाता है ? अतः आत्माहितैषी जनों को चाहिये कि-जैनधर्म का वास्तविक स्वरूप विचारे और
आत्मसन्मुख होने के लिये पांचो इन्द्रियजन्य विषयों को परा- . जित करें । मतलब कि आत्मभावमें हमेशां जागृत रहना यही जैनधर्म का खास मंतव्य है। जैनधर्म वह सनातन सत्य है :
जैनधर्म का अस्तित्व अनादि काल से चला आ रहा है। प्राचीन से प्राचीन धर्म जो कोई है तो वह जैनधर्म है। नीचे लिखी हुई बातों से यह बात स्पष्ट समजी जा सकती है। बुद्धदेव के पहिले बौद्धधर्म का अस्तित्व न था, जीसिस क्राइस्ट के पहिले क्रिश्चियन धर्म की उत्पत्ति न थी । पयगंबरने मुस्लिम धर्म की स्थापना की इस तरह जैन धर्म किसी पुरुष का स्थापित धर्म नहीं है। तीर्थंकर भगवानों की. कई चोविशीयां व्यतित हो चुकी परन्तु जैनधर्म के साथ किसी तीर्थंकर का नाम नहीं जोडा गया। क्यों कि जैन धर्म सनातन सत्य है। महान् तीर्थंकरादि भी धर्म के प्ररूपक कहलाते है-धर्म के स्थापक नहीं। कारण कि वह अनादिकाल से चला आ रहा