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(अ) के लिये ही नहीं, किन्तु भाषा मात्र के लिये है प्रस्तुत ग्रंथ की रचना के समकालीन भाषा की अन्य रचनाओं के साथ तुलना करने से भी अपने समय के अनुसार इस की विशिष्टता में कोई अन्तर नहीं आता । प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा के साथ यदि निश्चल दास जी के विचारसागर और वृत्तिप्रभाकर की भाषा का मिलान करें, तो दोनों में बहुत समानता नज़र आयेगी । इस लिये भाषा की दृष्टि से भी प्रस्तुत ग्रन्थ की उपादेयता में कोई अन्तर नहीं आता । हां ! वर्तमान समय की छटी हुई हिंदी भाषा के दिलदादाओंप्रेमियों को यदि यह भाषा रुचिप्रद न हो, तो हम कुछ नहीं कह सकते । परन्तु इस से उक्त भाषा सौष्ठव में कोई क्षति नही आती।
न रम्यं नारम्यं प्रकृतिगुणतो वस्तु किमपि । प्रियत्वं वस्तूनां भवति खलु तद्ग्राहकवशात् ।। रचनाशैली
प्रस्तुत ग्रंथ की रचनाशैली भी, वर्तमान समय की रचनाप्रणाली से भिन्न है, तथा विषय निरूपण में जिस पद्धति का अनुसरण किया गया है, वह भी वर्तमान समय की निरूपण शैली से पृथक् है । परन्तु यह होना भी कोई अस्वाभाविक नही, क्योंकि यहां पर भी वही. परिवर्तन का नियम काम करता है, अर्थात् भाषा और लिपि की तरह रचनाशैली में भी समय के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। प्रस्तुत ग्रन्थ की रचनाशैली के लिये भी उपर्युक्त विचारसागर और वृत्तिप्रभाकर तथा स्वामी चिद्घनानंद जी कृत