Book Title: Jain Tattvadarsha Purvardha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 11
________________ (ज) विभक्त किया गया है । प्रथम परिच्छेद में देव के स्वरूप का वर्णन है, और उस से सम्बन्ध रखने वाले और कई एक उपयोगी विषयों की चर्चा है। दूसरे में कुदेव के स्वरूप का उल्लेख करते हुए ईश्वर के जगत्कर्तृत्व का दार्शनिक रीति से प्रतिवाद किया है। . तीसरा परिच्छेद गुरुतत्त्व के स्वरूप का परिचायक है, और उस में साधु के पांच महाव्रतों का स्वरूप और १२ भावना प्रादि का विस्तृत वर्णन है। चौथे में कुगुरु के स्वरूप का विस्तृत वर्णन एवं वेद विहित हिंसा का प्रतिवाद और अहिंसा के सिद्धांत-का समर्थन किया है। पांचवें परिच्छेद में धर्म के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करते हुए साथ में जीवादि नवपदार्थों का विशद वर्णन है। . ___ छठे परिच्छेद में सम्यग्ज्ञान के विवेचन में १४ गुणस्थानों का वर्णन और-उन की विशद व्याख्या विद्यमान है। ' सातवें में सम्यग्दर्शन और तत्सम्बन्धी अन्य विवेचनीय विषयों पर प्रकाश डाला है। आठवें परिच्छेद में सम्यक् चारित्र के स्वरूप को' उल्लेख करते हुए सर्व विरति और देशविरति भादि भेदों का निरूपण भली भांति से किया है । श्रावक के चारह व्रतों का भी इस में पूर्ण रूप से विवेचन है ।

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