Book Title: Jain Tattva Darshan Part 06
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 43
________________ | वे अल्प संसारी होते हैं अर्थात् उनका इस संसार में भ्रमण कम हो जाता है। आचारोपदेश ग्रंथ में कहा है, कि सोते समय निम्नलिखित चार भगवान के नाम का स्मरण किया जाएँ 1. श्री नेमिनाथ भगवान जिससे दुष्ट (गंदे) स्वप्न न आएँ । 2. श्री पार्श्वनाथ भगवान जिससे दुःस्वप्न (खराब स्वप्न ) न आएँ । जिससे सुर्खपूर्वक निद्रा आए । 3. श्री चंद्रप्रभ स्वामी 4. श्री शांतिनाथ भगवान जिससे चोरादि का भय न लगें । कषाय वाले होते - - साथ ही यह मान के चले की इस लोक में महा कल्याणकारी श्री अरिहंत भगवान, श्री सिद्ध भगवान, श्री मुनि भगवंत और श्री वीतराग भाषित धर्म-ये चार ही संसार में सच्ची शरण देने वाले है अतः इनकी भावपूर्वक शरण प्राप्ति हेतु प्रार्थना करें। (2) पूर्व भवों में तथा वर्तमान भव में एकत्रित किये हुए पाप के साधन, शरीर, धन, कुटुम्बादि त्रिविध-त्रिविध प्रकार से वोसिराता हूँ । (3) स्सार के सभी जीवों को मैं खमाता हूँ (क्षमा करता हूँ), वे सभी मुझे क्षमा प्रदान करें, मुझे किसी पर क्रोध द्वेष नहीं है, छोटी सी जिंदगी में मुझे किसी के भी साथ बैर नहीं रखना है, अनेक गतिओं में रहे हुए सभी जीव मेरे मित्र है। सभी सच्चे सुख के साधक बनें। इस प्रकार चार का शरण आदि स्वीकार और सभी जीवों के साथ क्षमा याचना करके सोना चाहिए । इस प्रकार सो जाने के बाद प्रात:काल में पूर्व में निर्दिष्ट विधि के अनुसार ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाएँ और जिस प्रकार आपको दिनचर्या बताई है तदनुसार प्रतिदिन उसका पालन करें। इस प्रकार समस्त दिनचर्या का पालन - आचरण करता हुआ बालक निर्दोष (दोष रहित) अर्थात Good Boy बनकर इस लोक में कीर्ति पात्र बनता है तथा परलोक में सद्गति को प्राप्त करता है। - B. श्रावक के दैनिक 36 कर्त्तव्य 1. जिनाज्ञा का पालन - जैन सूत्रों के प्रति आस्था तथा उनका पालन - जिनेश्वर भगवान के द्वारा जो काम करने की आज्ञा हो वह काम करना, उसके विपरीत काम नहीं करना । 2. मिथ्यात्व का त्याग करना भव भ्रमण का मुख्य कारण मिथ्यात्व है यानि खोटी या झूठी समझ उसका त्याग करना । 3. सम्यक्त्व को धारण करना - सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा रखना। 4. सामायिक करना • इसका अर्थ है समता भाव में रहना। इससे समता की वृद्धि होती है। यह नित्य 48 मिनट तक की जाती है और करेमि भंते सूत्र द्वार उच्चरायी जाती है। 5. चतुर्विंशतिस्तव ( लोगस्स ) - चौबिस जिनेश्वरों की स्तुति, चतुर्विंशतिस्तव द्वारा प्रभु-भक्ति में लीन होना । 41

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