Book Title: Jain Tattva Darshan Part 06
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 83
________________ B. नौ तत्त्व (1) अजीव तत्त्व अजीव तत्त्व की कुछ विचारणा (1) जिसमें चैतन्य शक्ति का अभाव हो, ऐसे पदार्थों को अजीव कहते हैं। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, यह पुद्गल का स्वभाव है। हमें चर्मचक्षु से जो कुछ भी पदार्थ दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वे सब पुद्गल स्कंध स्वरूप हैं, नाशवंत हैं। इसी प्रकार जीव का शरीर भी पुद्गल का ही बना हुआ होने से नाशवंत है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल ये भी अरूपी होने से अदृश्य हैं, लेकिन सर्वज्ञ कथित शास्त्रों के वचनों से हमें उन पर श्रद्धा होती है। (2) प्रदेश और परमाणु अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ हैं। सर्वज्ञ भगवंतों की दिव्यदृष्टि से भी वह अविभाज्य है। वर्तमान युग के विज्ञान द्वारा खोजा हुआ 'अणु' क्या 'अणु' है ? नहीं, वह तो अनंत-अनंत परमाणुओं का पुंज ही है। (स्कंध है) (3) समय से लेकर पुद्गलपरावर्तन तक के काल का स्वरूप जानने से हमें प्राप्त दुर्लभ मानव जीवन की महानता का अमूल्य मूल्यांकन होगा और व्यर्थ व्यतीत होते समय की अंतरमन में भारोभार पश्चाताप रूप संवेदना पैदा होगी। हमारी आत्मा ने अव्यवहार राशि में सूक्ष्म निगोद के भवों में अनन्त पुद्गल परावर्तनकाल तक बार-बार जन्म-मरण आदि की अकथ्य भयप्रद अनेकानेक यातनाएँ सहन की हैं। उनका सत्य वर्णन शास्त्रों द्वारा जानने से हमारी आत्मा काँप उठती है। श्री जिनेश्वर भगवंत द्वारा निर्दिष्ट एवं सर्वोत्कृष्ट धर्म मार्ग हमें मिल गया है। अब एक समय का भी प्रमाद किये बिना अनंतानंत वेदनाएं और दर्दनाक दु:खों की अखंड परंपरा को नष्ट करने में समर्थ ऐसे धर्म मार्ग पर सदा चलते रहें। यही मानव जीवन की सफलता का सच्चा उपाय है। (4) विश्व में रहे सर्व चराचर पदार्थों का समावेश 'षड्द्रव्य' में अथवा पंचास्तिकाय में हो जाता है। परिणामी आदि 23 द्वारों से षड्द्रव्यों की समानता और असमानता का अवबोध (ज्ञान) होता है। द्रव्यानुयोग का यह सूक्ष्म ज्ञान अध्यात्मचिंतन-मनन के लिए अत्यन्त प्रेरक, उपकारक हैं। (1) निश्चय से सर्वद्रव्य अपने-अपने स्वभाव को छोड़ कर एक दूसरे में मिश्रण नहीं होते। फिर भी पुद्गल और जीव परिणामी हैं। यानी उनमें परस्पर के संयोग से बड़े-बड़े आश्चर्यजनक परिवर्तन होते हैं। विश्व की विचित्रता का कारण इन द्रव्यों का परिणमन स्वभाव ही है। शेष धर्मास्तिकायादि चार द्रव्य की तरह जीव और पुद्गल भी यदि अपरिणामी स्वभाव वाले होते तो हमें विश्व की विचित्रता का दर्शन नहीं हो पाता। (2) अपने परिणामी स्वभाव के कारण ही जीव और पुद्गल अनित्य है। लेकिन स्याद्वाद, दृष्टिकोण से देखा जाय तो सर्व द्रव्य नित्यानित्य स्वरूप वाले हैं। 'द्रव्य' अविनाशी और ध्रुव है। अत: 181

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