Book Title: Jain Tattva Darshan Part 06
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 107
________________ | विष डालकर खाने की तैयारी कर रहे थे कि आप पधार गए। धन्य भाग्य! धन्य घडी प्रभो ! लाभ दो ! श्री वज्रसेन सूरि ने पूछा, क्या वास्तव में यह एक लाख की हाँडी है? तो अब विष खाने की आवश्यकता नहीं है! हमारे गुरू महाराज ने फरमाया था कि लाख स्वर्ण मुद्राओं की एक हाँडी जितना अन्न (धेगा, उसके दूसरे दिन धान्य सुलभ होगा। और दूसरे ही दिन परदेश से अन्न के जहाज आए। समय पर वर्षा भी हुई। सर्वत्र अच्छी फसल हुई। उस सेठ ने अपनी पत्नी, इन्द्र, चंद्र, नागेन्द्र और निवृत्ति नाम वाले चार पुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण की। आगे जाकर इन चार मुनिराजों के नाम पर ऐंद्री, चाँद्री, नागेन्द्री और निवृत्ति नामक श्रमण शाखाएँ प्रसिद्ध हुई। श्री वज्रसेन सूरिजी भी महाप्रभावक हुए ! श्री वज्रस्वामी का ऐसा अद्भुत चरित्र सुनकर, हे बालकों ! आप भी श्री जिनागम के बोध हेतु उत्तम गुणों के उपार्जन हेतु सतत प्रयत्नशील रहना। और ऐसे महान आचार्य बनकर शासन की प्रभावना करना। B. श्री नागकेतु पूर्वभव में नागकेतु किसी वणिक का पुत्र था। बचपन में ही उसकी माता मर गई और उसके पिता ने अन्य कन्या से ब्याह किया। उस नयी आयी स्त्री को उसकी सौत का पुत्र काँटे की तरह चुभने लगा। और इस कारण कई तरह से उसे पीड़ा देने लगी। पूरा खाना न देती। घर का काम खूब कराती और मूढ़ मार मारती थी। लम्बे समय तक ऐसी पीड़ा सहते-सहते वह त्रस्त हो गया और घर छोड़कर अन्य जगह भाग जाने के लिए एक सायं घर से भाग निकला। भागते समय नगर के बाहर निकलने से पूर्व जिनेश्वर के दर्शन करने एक मंदिर में जाकर स्तुति वंदना की और उसके चबूतरे पर बैठा था। सद्भाग्य से उसका एक मित्र मंदिर में से बाहर निकला और मित्र को निराश वदन से बैठा हुआ देखकर उसको पूछा,'क्यों भाई ! किस चिंता में है ?' मित्र ने जवाब दिया, 'कुछ कहा जाय ऐसा नहीं है, अपार दुखियारा हूँ और अब त्रस्त होकर घर से भाग जाने निकला हूँ।' श्रावक मित्र ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, भाई, घबराना मत। धर्म से सब कुछ ठीक हो जाता है। तप से कई कर्मों के नाश हो जाते हैं। पूर्व भव में तूने तप किया नहीं है, इसलिए तू दुःखी होता है, इसलिए तू एक अट्ठम कर।' आगामी वर्ष पर्युषण पर्व आए, तब अट्ठम तप करने का निश्चय किया; अतः घर से भागने के बदले रात्रि को वापिस घर आया। घर का दरवाजा तो बंद था इस कारण घर के बाहर घास की गंजी थी उस पर वह सो गया। परंतु मन में अट्ठम तप जरूर करूंगा ऐसी भावना करता रहा। उधर माता ने खिड़की में से देख लिया कि यह शल्य आज ठीक पकड़ में आया है। गंजी को आग लगा दं तो यह मर जायेगा, और लम्बे समय से इसका काँटा निकालने की इच्छा है जो आज पूरी हो जायेगी। ऐसा विचार करके घोर रात्रि में घास की गंजी को आग लगा दी। बाहर का पवन तथा अग्नि का साथ... कुछ ही देर में गंजी चारों और से जल गई और वह वणिकपुत्र जिंदा ही जलकर राख हो गया। परंतु मरते-मरते भी अट्ठम तप करना है ऐसी भावना आखिरी क्षण भी रही। 1105

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