________________
अनजय राजा ने केशव का राज्याभिषेक किया।
विचार किया कि अभी ही तो मैं सोया था तो घडी. भर में ही क्या रात्रि पूर्ण हो गई ? ऐसा असंभव है। अवश्य ही यह सब यक्ष की माया है। अभी तो मेरी आँखों में नींद है और मेरे श्वास में सुगंध का अभाव है। केशव इस प्रकार सोच ही रहा था कि वह यक्ष बोल उठा, अरे केशव! अब कदाग्रह छोड दे और शीघ्र पारणा करले । केशव ने कहा यक्षराज ! इस प्रकार मैं छला जा सकूँ ऐसा नहीं हूँ। मुझे विश्वास है कि अभी तो रात्रि है, यह प्रकाश तो तेरी माया जाल का परिणाम है। कि जब इतनी विकट कसौटी करने भी केशव डिगा नही, तब यक्ष प्रसन्न हुआ और केशव के मस्तक पर पुष्प की वृष्टि की तथा आकाश जय जय शब्द से गूंजारित हो गया। अब न रहा यक्ष न रहा यक्ष मंदिर
और न रहे उस यक्ष के भक्तजन ! केशव समझ गया कि अवश्य ही उसने मेरी परीक्षा की है। उसी समय यक्ष प्रत्यक्ष हुआ और केशव के गुणगान करने लगा कि वास्तव में इस जगत में आप महान् पुण्यवान एंव धैर्यवानों में शिरोमणि पुरुष हो। सचमुच ही आप जैसे पुण्यात्माओं से यह पृथ्वी रत्नगर्भा कहलाती है।
इन्द्र महाराजा ने अपनी सभा में रात्रि भोजन का त्याग तथा आपकी अटल प्रतिज्ञा की प्रशंसा की थी। आपके धैर्य का अपूर्व वर्णन किया था। मुझे यह बात स्वीकार्य न थी। इन्द्र की बात को असत्य करने
और आपको प्रतिज्ञा च्युत करने के लिये मैं यहाँ आया था, परंतु आप तनिक भी डिगे नहीं और प्रतिज्ञा में अविचल रहे। धन्य है आपको ! मेरा अपराध क्षमा करो। मैं आप पर प्रसन्न हुआ हूँ। माँगो ! जो माँगना है, वह मैं देने के लिये तैयार हूँ। यद्यपि महान् व्यक्तियों को कुछ भी इच्छा नहीं होती, परंतु आपके धैर्य
और शौर्य से आकृष्ट मैं आपको मेरी भक्तिवश वरदान देता हूँ कि आज से किसी भी रोगी को आपके चरण धोया हुआ जल लगाओगे तो उसका रोग मिट जाएगा और आप मन में जो भी इच्छा करोगे, वह तत्काल पूर्ण होगी। इस प्रकार यक्ष ने केशव को वरदान दिया और उसी समय यक्ष केशव को साकेतपुर नगर के बाहर रखकर अदृश्य हो गया। केशव ने भी स्वयं को किसी नगरी के बाहर पाया। सूर्योदय होने पर नित्य कर्म से निवृत्त होकर उसने नगर में प्रवेश किया। वहाँ नगर के मध्य भाग में उसने एक आचार्य महाराज को नगर जनों को प्रतिबोध करते हुए देखा। केशव को गुरु दर्शन से अत्यंत आनंद हुआ। गुरु महाराज को वंदन करके उनके सन्मुख वह बैठ गया।
देशना समाप्त होने के बाद नगर के धनंजय राजा ने गुरुदेव को प्रार्थना की, हे गुरुदेव ! मेरी इच्छा व्रत ग्रहण करने की है। अनेक रोगों से मेरा शरीर क्षीण होने आया है। अत: अब आत्म कल्याण की मेरी भावना है, परंतु मुझे कोई पुत्र नहीं है। अपुत्र ऐसा मैं अपना राज्य सिंहासन किसे दूं? ऐसा विचार करके रात्री में मैं सोया था। रात्रि में स्वप्न मे एक दिव्य पुरुष ने आकर मुझे कहा कि कल प्रात: दूर देशांतर से एक व्यक्ति तेरे गुरु महाराज के पास आएगा, वह पुरुष महान् भाग्यशाली है। उसे तू राजगद्दी दे देना
114