Book Title: Jain Tattva Darshan Part 06
Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai
Publisher: Vardhaman Jain Mandal Chennai

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Page 121
________________ कैसे वापस घर में रख लिया? इन्होंने सूर्यवंश पर काला धब्बा लगाया है। इस प्रकार एक निर्दोष आत्मा सीताजी पर झूठा कलंक आया, क्योंकि वेगवती के भव में उन्होंने आलोचना नहीं ली थी। रामचन्द्रजी स्वयं जानते थे कि सीताजी महान सती है, उसमें तनिक भी दोष नहीं है। फिर भी उन्होंने लोकापवाद के कारण कृतान्तवदन सारथी को बुलाया और तीर्थयात्रा के निमित्त से गर्भवती सीताजी को जंगल में छोड़ने के लिए कहा। कृतान्तवदन जब सिंहनिनाद नामक भयानक जंगल में पहुँचा और वहाँ वह रथ से नीचे उतरा। तब उसका मुख म्लान हो गया। आँखों से श्रावण भाद्रपद बरसने लगा, तब सीताजी ने उससे पूछा कि 'आप शोकाकुल क्यों है"? तब उसने कहा कि "इस पापी पेट के कारण मुझे यह दुर्वचन कहना पड़ रहा है कि आप रथ से उतर जाईये, क्योंकि यह रामचन्द्रजी की आज्ञा है कि आपको इस जंगल में निराधार छोड़कर मुझे वापस लौटना है।" रावण के यहाँ रहने के कारण लोगों में आपकी निंदा होने लगी है। इसलिए सती होते हुए भी आपको रामचन्द्रजी ने लोक-निंदा से बचने हेतु जंगल में छोड़ने के लिए मुझे भेजा है। __ सीताजी यह सुनते ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ी; आँखें बंद हो गई, शरीर भी निश्चेष्ट-सा हो गया, सारथी जोर से रोने लगा। अरे! मेरे वचन से एक सती की हत्या? कृतान्तवदन असहाय होकर खड़ा रहा। इतने में जंगल की शीत हवा ने संजीवनी का काम किया। उससे निश्चेष्ट सीताजी को होश आया, फिर उसने सारथी द्वारा रामचन्द्रजी को संदेश भेजा कि जिस तरह लोगों के कहने से आपने मेरा त्याग किया है, उससे आपका कुछ भी नुकसान नहीं होगा क्योंकि मैं मंदभाग्यवाली हूँ। परंतु उसी प्रकार लोगों के कहने से धर्म का त्याग मत करना । नहीं तो भवोभव बिगड़ जायेंगे। यह सुनकर सारथी की आँखों में आँसू आ गये। उसका हृदय गद्गद् हो गया... महासती के सत्य पर धन्य-धन्य पुकार उठा। सती को छोड़कर सारथी चला गया। उस भीषण जंगल में वज्रजंघ राजा अपने मंत्री सुबुद्धि आदि के साथ हाथियों की शोध के लिये आये हुए थे। दूर से अकेली, अबला स्त्री को देखकर सहायता के लिये राजा अपने सिपाहियों के साथ वहाँ पहुँचे। सीताजी उन्हें लूटेरा समझकर गहने उनकी तरफ फेंकने लगी। तब वज्रजंघ राजा ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि, "आप चिंता मत कीजिये । हम आपकी सहायता के लिये आये हैं। आपके भाई के समान हैं।" तब सीताजी ने सब हकीकत कही, उसके बाद वज्रजंघ राजा वहाँ से सीताजी को सम्मान पूर्वक सुरक्षा के लिए पुंडरीक नगरी में ले गया। वहाँ पर उसने लव-कुश दो पुत्रों को जन्म दिया। जब वे बड़े हुए, तब उन्होंने राम-लक्ष्मण के साथ युद्ध किया। युद्ध में राम-लक्ष्मण आकुल-व्याकुल हो गये। इतने में नारदजी वहाँ आये। उन्होंने पितापुत्र का परिचय करवाया और युद्ध को रोक दिया गया । उनका सुखदायी मिलन हुआ। लव और कुश को मान-सम्मान के साथ अयोध्या में प्रवेश करवाया। बाद में रामचंद्रजी की आज्ञा को मान देकर सीताजी ने अग्नि-दिव्य किया। रामचन्द्रजी ने सम्मानपूर्वक अयोध्या में प्रवेश करने के लिए सीताजी से कहा । सीताजी ने उसी पल आत्म-कल्याण करने हेतु स्वयं लोच कर संयम स्वीकार किया; इत्यादि बातें हम जानते हैं। पूर्वभव में उपहास में मुनि पर कलंक का आरोपण दिया था, उसका प्रायश्चित न लेने से एक महासती के ऊपर कलंक आया और उसके कारण कितने कष्ट सहने पड़े । अतः हमें जरूर आलोचना लेनी चाहिए। 119

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