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दूसरी महिला बोली कि ऐसा सुंदर पुत्र हो, फिर वे कुछ भी कभी न रखते, परंतु वे तो ऐसे विरक्त, कि पुत्र के जन्म तक भी न रुके और यकायक दीक्षा ले ली।
___ यह सुनते ही सुनंदा के पुत्र की स्मृति तेज हो गई। “पुत्र के जन्म तक भी न रुके और दीक्षा ले ली।” ये शब्द मानो हृदय में अंकित हो गए। मैंने ये अति परिचित शब्द कहीं पहले सुने है ? इस प्रकार चिंतन करने से विस्मृति के पटल खुल गए और गतभव स्मृति पटल पर उभर आया। तातिस्मरण ज्ञान हुआ। गत भव की आराधना ताजी हो गई। समझ में आ गया कि मेरे पिताजी ने दीक्षा ले ली है। माता की मैं इकलौती संतान हूँ। माता के पास अतुल वैभव है, मुझ पर अत्यंत प्रेम और ममता है, परंतु मानव भव तो आत्मा का कल्याण करने के लिए है। ऐसे सुंदर संयोग जीव को बार बार नहीं मिलते, परंतु माता के पास से कैसे मुक्त हो सकता हूँ ? माता मुझ से तंग आ जाए तो मुझे छोडे, उसके लिए मुझे क्या करना चाहिए ? और उस छोटे बालक को परभव के ज्ञान (जातिस्मरण) से मार्ग सूझ गया। उसने उसका क्रियान्वयन किया। बालक के पास क्या मार्ग हो सकता है ? उसने रोना शुरू किया। सुनंदा के ठीक काम का या आराम का अवसर हो तभी वह बच्चा धीरे-धीरे रोना शुरू करता और कुछ ही सम्य में तो उसका रुदन इतना बढ़ जाता कि सुनंदा त्रस्त हो जाती थी। वह जैसे-जैसे उसे चुप करने क प्रयत्न करती, वैसे-वैसे उसकी आवाज अधिक बुलंद हो जाती थी। सुनंदा ने अनेक उपाय किये, बच्चे को किसी की नजर लग गई हो, अथवा कोई भूत प्रेत के प्रभाव में आया हो, ऐसा मानकर उनके निषगातों से उसका उपचार भी करवाया, परंतु सब निरर्थक रहा। दिनभर काम करके, पुत्र की अति चिंता करके थकी हुई सुनंदा को प्रहर रात्रि बीतने पर कडी कठिनाई से नींद आती । उसने एकाध घडी की नींद ली हो कि वहाँ धीरे रहकर उसका बच्चा रोना शुरू करता, जिससे जगकर पुत्र को शांत करने के अनेक प्रयत्न करती, परंतु सारे ही प्रयत्न निष्फल रहते थे। मध्य रात्रि में रोते हुए बालक की क्षण-क्षण बढती हुई आवाज मात्र उसकी माता के लिये ही नहीं, बल्कि अडोस-पड़ोस में रहने वालों के लिये भी असह्य हो गई थी।
माता से छुटकारा लिये बिना कल्याण न था और अकेली पड़ी हुई माता की ममता के लिए एक मात्र यह पुत्र ही था। माता परेशान हो तभी ममता के वेग में अवरोध पैदा हो सकता है और इसीलिए उस बालक ने अपनी व्यवस्थित योजना को लागू किया था।
अब तो पडोसी भी कहते थे सुनंदा ! तेरे पुत्र से अब तंग आ गए है। सुनंदा कहती मैं भी त्रस्त हो चुकी हूँ, परंतु करूँ भी क्या ? ऐसे में एक दिन आर्य सिंहगिरिजी महाराज अपने शिष्य-प्रशिष्य धनगिरिजी महाराज आदि के साथ उस गाँव में पधारे । श्री धनगिरिजी महाराज अपने गुरुजी को पूछकर गोचरी के लिए प्रस्थान कर रहे थे, तब गुरुजी श्री सिंहगिरिजी आचार्य देव ने कहा, "आज 'भक्षा में सचित्त अथवा अचित्त जो कुछ भी प्राप्त हो, उसे ग्रहण कर लेना।” “जैसी आपकी आज्ञा” ऐसा कहकर श्री धनगिरिजी महाराज घूमते-घूमते सुनंदा के घर आ पहूँचे। धर्मलाभ की परिचित ध्वनि सुनकर जगे हुए बालक ने व्यवस्थित रुप से रोना प्रारंभ किया। पुत्र से उकताई हुई सुनंदा बोली महाराज ! आप मजे से आत्म कल्याण की साधना कर रहे हो, परंतु मेरे तो दुःख की कोई सीमा ही नहीं रही है। इतनी सुख
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