Book Title: Jain Tattva Darshan Part 06 Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai Publisher: Vardhaman Jain Mandal ChennaiPage 92
________________ C. सदाचार गुण जीवन शणगार सद्गुण पूज्यपाद1444 ग्रंथ के प्रणेता आचार्य देव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा ने जीवन मे महत्त्वपूर्ण सिद्धि हांसिल करने एवं आध्यात्मिक जीवन के सृजन हेतु नींव स्वरूप अनेक सद्गुणों का वर्णन योगबिंदु, धर्म बिंदु आदि ग्रंथों मे किया है। गुणवैभव के मूलाधार ऐसे कुछ गुणों का वर्णन यहां पर किया जा रहा है। 1. परिहर्तव्यो अकल्याणमित्र योगः कुमित्रों का त्याग। सज्जन मित्र नही होगा तो चल जायेगा, पर कुमित्र का संग तो हरगिज नही चलेगा। अध्यात्मपथ पर जीवन को उत्क्रांति के चाहको को सर्व प्रथम कुमित्र संग का संपूर्ण त्याग करना होगा। होटेल, मोटेल, क्लब, पब, कॉफी हाऊस इन अनाचारों के अड्डों मे ले जाने वाला यह बेड फ्रेंड सर्कल ही है। आज का युवा वर्ग पत्नी पसंद करने में जितनी सतर्कता रखते हैं, उससे ज्यादा सावधानी मित्र पसंद करने मे रखनी चाहिए। जीवन का सबसे ज्यादा कीमती समय युवानी का है। अगर इसे व्यसनी स्वार्थी मित्रों के साथ पूरा कर दिया तो शेष जीवन कैसा होगा?, वह स्वयं सोचे विचारे । मूरख, बालक, याचक, व्यसनी, कारू ने वली नारूजी । जो संसारे सदा सुख वांछो तो, चोरनी संगत वारूजी ॥ अगर संसार में सदा सुख चाहते हो तो मूरख की दोस्ती, बालक की नित्रता, व्यसनी, भिखारी, कारू यानि जो पत्थर - लोहा वगेरे तोडने वाले, जो लगभग दिल के कठोर होते हैवैसों कि, नारू अर्थात जो खराब धंधे करते हो, हल्की मनोवृत्ति धारण करते हो, संकुचित व्यवहार वाले हो वैसों की सोहबत सर्वदा त्याज्य है। और अंत मे चोर, इन सबकी मित्रता वर्ण्य कही गई है। 2. सेवितव्यानि कल्याणमित्राणि: कल्याणमित्र का संग करना । हाँ, हम शायद 'मत्र बनाये बिना नहीं रह सकते तो जीवनसृष्टिको सुसज्ज करे वैसे कल्याण - हितैषी - परार्थी मित्रों को पसंद करे। इस बात के लिये शास्त्रों में अभयकुमार, नागकेतु आदि के उदाहरण प्रसिद्ध है। 3. गुरू - देवादि पूजनम् : बड़ों का पूजन: इस गुण में ग्रंथकार श्री ने गुरूवर्ग एवं देव के पूजन की बात की है। गुरुवर्ग माता, पिता, कलाचार्य, वरिष्ठ स्वज्ञातिजन, धर्मोपदेशक, वयोवृद्ध का समावेश होता है। इन 6 की भक्ति, सेवा, औचित्य ध्यान में लेना चाहिए, देवों में में परम करुणावत्सल तीर्थंकर को ग्रहण करना चाहिये । - 4. पात्रे दीनादिवर्गे दानम्ः सुपात्र दान एवं दीन, गरीब आदि को दान अमीरी की 90Page Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132