Book Title: Jain Tattva Darshan Part 06 Author(s): Vardhaman Jain Mandal Chennai Publisher: Vardhaman Jain Mandal ChennaiPage 80
________________ कार्मण, (9) आहारक - आहारक, (10) आहारक - तैजस, (11) आहारक-कार्मण, (12) आहारक - तैजस कार्मण, (13) तैजस-तैजस, (14) तैजस-कार्मण, (15) कार्मण - कार्मण बंधन। ____VI. संघातन नामकर्म : शरीर को नियत प्रमाण में निर्मित/रचित करते समय पुद्गलों के भागों को उस उस स्थान पर दंताली की तरह संचित करने को संघातन नामकर्म कहा जाता इसके कुल 5 भेद हैं। (1) औदारिक शरीर संघातन (2) वैक्रिय शरीर संघातन (1) आहारक शरीर संघातन (4) तैजस शरीर संघातन (5) कार्मण शरीर संघातन VII. संघयण नामकर्म : हड्डियों के दृढ/दुर्बल जोड प्रदान करनेवाले कर्म को संधयण नामकर्म कहा गया है। इसके कुल 6 भेद हैं। (1) वज ऋषभ नाराच = एक दूसरे में आँटी (गाँठ) लगा कर हड्डियों का परस्पर संबंध, जिसके बीच में हड्डी का ही पट और उस पर मेख (कील) होती है। (नाराचः-मर्कट बन्ध, इस पर ऋषभ = हड्डी का लपेटा हुआ पट्टा और बीच में ठीक ऊपर से नीचे तक आरपार की गयी वज्र जैसी हड्डी की मेख।) (2) ऋषभ नाराच = केवल वज्र कील को छोडकर ऊपर जैसा ही। (3) नाराच = केवल मर्कट बन्ध (4) अर्धनाराच = सांधे के एक ओर हड्डी की रचना में मर्कट बन्ध हो और दूसरी ओर कील (5) कीलिका = केवल कील से ही हड्डी टाँकी गयी हो। (6) छेवटुं = छेद स्पृष्ठ अथवा सेवार्त। सिर्फ अंत में परस्पर सट कर रही दो हड्डियाँ, जो तेल मालिशादि सेवा की अपेक्षा रखती हो। VIII. संस्थान नामकर्म : (1) सम चतुरस्र:(अस्र= कोण, कोना) पर्यंकासन में स्थित व्यक्ति के दाँये घुटने से बाँये कंधे (स्कंध) पर्यंत का अंतर और दाँये स्कंध से बाँये घुटने के बीच रहा अंतर। ठीक वैसे ही दो घुटनों का अंतर और दो घुटनों के मध्य भाग से ललाटप्रदेश तक का अंतर। उपरोक्त चारों के बीच रहा अंतर (दूरी) एक-सा होता है, अत: उसे समचतुरस्र संस्थान कहा गया है। (2) न्यग्रोध : परिमंडल वटवृक्ष की भाँति चारो ओर से समान रूप में पुष्ट... भरा-भरा, नाभि से ऊपर ___ लक्षण वाला एवं नीचे लक्षण हीन। (3) सादि= नाभि के नीचे लक्षण युक्त हो, ऊपर नहीं (4) वामन = मस्तक, गला, हाथ-पाँव आदि सप्रमाण हों। (5) कुब्ज = उपरोक्त अवयवों के अतिरिक्त वक्ष, सीना... उदरादि अच्छे हों 178Page Navigation
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