Book Title: Jain Sukta Sandoha
Author(s): Kailassagarsuri
Publisher: Kailas Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust Mumbai
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मनाशुद्धिश्च सम्यक्त्वे, सत्येव परमार्थतः, तद्विना मोहगर्भा सा, प्रत्यपायानुबन्धिनी ॥१०॥ अ० प्र० श्लो १ ।। सम्यक्त्वसहिता एव, शुद्धा दानादिकाः क्रियाः। तासां मोक्षफले प्रोक्ता यदस्य सहकारिताः ॥११॥ अ० प्र० श्लो०२ उपशामिकमेकं च परं क्षायोपशमिकम् । तृतीय क्षायिकं तुर्य, सास्वादनं च वेदकम् ॥१२॥ हिं० स० श्लो० १० शमसंवेगनिदानुकम्पास्तिक्यलक्षणैः। लक्षणेः पञ्चभि सम्यः सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥१३॥यो०पृ०६३,श्लो०१५ (प्र.स.) आन्तमौहर्तिकं सम्यग्दर्शनं प्राप्नुवन्ति यत् । निसर्गहेतुकमिदं सम्यक्श्रद्धान मुच्यते ॥१४॥ उ० भाग १,पृ०९ (प्र.स.) गुरूपदेशमालम्ब्य, प्रादुर्भवति देहिनाम् । यत्तु सम्यक्श्रद्धानं तत् स्यादधिगमजं परम् ॥१५॥उ० भाग १, पृ.९ (प्र. स.)। चैत्यद्रव्यहृतिः साध्वीशीलभङ्गार्षिघातने । तथा प्रवचनोड्डाहे मूलाग्निर्वाधिशाखिनः ॥१६॥
त्रिषष्ठी० पर्व ८, सर्ग १० श्लो०२८ शंका कांक्षा विचिकित्सा, जैनादन्यस्य संस्तुतिः। तत्संस्तवोऽपि पंचैव, सम्यक्त्वदूषणानि च ॥१७॥ हि.स. श्लो. ३९ सम्यक्त्वेन हि युक्तस्य, ध्रुवं निर्वाणसंगमः । मिथ्यादृशोऽस्य जीवस्य, संसारे भ्रमणं सदा ॥ १८ ॥ त० श्लो० ४१ धनेन होनोऽपि धनी मनुष्यो, यस्यास्ति सम्यक्त्वधनं प्रधानम् । धनं भवेदेकभवे सुखाय, भवे भवेऽनन्तसुखी सुदृष्टिः ॥ १९॥ सूक्तमुक्तावलि, अधिकार ५५, श्लो०६ रूचिः श्रुतोक्ततत्वेपु, सम्यक श्रद्धानमुच्यते । जायते तन्निसर्गण, गुरोरधिगमेन वा ॥२०॥ तथाधनाद्यन्तभवावर्तवर्तिषु देहिषु । ज्ञानदृष्ट्यावृत्तिवेद्यान्तरायाभिधकर्मणाम् ।। २१ ॥ सागरोपमकोटीनां. कोट्यास्त्रिंशत्परा स्थितिः । विंशतिर्गोत्रनाम्नोश्च, मोहनीयस्य सप्ततिः ।। २२॥ युग्मम् ॥
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